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________________ 12...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन किन्त प्रतिज्ञा खण्डित नहीं करना। गृहीत प्रतिज्ञा का भंग करना अनाचार कहलाता है। जैन चिन्तन में नियम भंग से सम्बन्धित चार विकल्प माने गये हैं। ___ 1. अतिक्रम-गृहीत प्रतिज्ञा को खण्डित करने का भाव अतिक्रम है। 2. व्यतिक्रम-प्रतिज्ञा खण्डित करने हेतु इच्छित स्थान पर पहुँच जाना व्यतिक्रम है। 3. अतिचार- प्रतिज्ञा को अंशत: खण्डित करना अतिचार है। 4. अनाचार-प्रतिज्ञा को पूर्णत: खण्डित करना अनाचार है। इन चतुर्विध विकल्पों में जो प्रतिज्ञा अंशत: खण्डित होती है, उसकी शुद्धि पश्चात्ताप या 'मिच्छामि दुक्कड़ के द्वारा की जा सकती है परन्तु पूर्णत: खण्डित हो जाये तो उसकी विशुद्धि आलोचना और प्रायश्चित्त के द्वारा ही सम्भव है। ___यहाँ ज्ञातव्य है कि जैन गृहस्थ के बारह व्रत आदि में 124 प्रकार के अतिचारों की संभावना रहती हैं और जैन मुनि के सत्तर मूलगुण एवं सत्तर उत्तरगुण से सम्बन्धित 140 प्रकार के अतिचार लगते हैं। अब श्रमणाचार का निरतिचार पालन करने के उद्देश्य से चरण सत्तरी एवं करण सत्तरी का सामान्य विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा हैश्रमण के लिए आचरणीय 70 मूल गुण प्रतिदिन किया जाने वाला चारित्रिक अनुष्ठान चरण कहलाता है अथवा जो व्रत-नियम प्रतिदिन अपरिहार्य रूप से आचरणीय होते हैं वे चरण कहलाते हैं। इन्हें मूलगुण भी कहते हैं। इसके अधोलिखित सत्तर भेद हैं-पाँच महाव्रत, दस श्रमण धर्म, सत्तरह प्रकार का संयम, दस प्रकार की वैयावृत्य, नौ ब्रह्मचर्यगुप्ति, रत्नत्रय, बारह प्रकार का तप और क्रोध आदि चार कषायों का निग्रह।37 पाँच महाव्रत __ 1. सर्वथा हिंसा करने का त्याग करना। 2. सर्वथा झूठ बोलने का त्याग करना। 3. सर्वथा चोरी करने का त्याग करना। 4. सर्वथा मैथुन सेवन का त्याग करना। 5. सर्वथा परिग्रह रखने का त्याग करना। इसका विस्तृत वर्णन खण्ड-4, अध्याय-7 में किया गया है।
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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