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________________ xivi...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन श्रावक से ही प्राप्त करते हैं जो उनके निमित्त किसी भी प्रकार बनी हुई नहीं होनी चाहिए, परन्तु आज प्राय: वस्त्र-पात्र आदि साधु के उद्देश्य से ही खरीदे जाते हैं। पूर्वकाल में श्रावक धोती-कुर्ता पहनते थे इसलिए अतिरिक्त सफेद वस्त्र सुगमता से प्राप्त हो जाते थे। आज पहनावे में आए बदलाव के कारण धोतीकुर्ता का प्रचलन कम हो रहा है। ऐसी स्थिति में निमित्त का आश्रय लेने के सिवाय कोई उपाय दिखाई नहीं देता। हाँ! इस विषय में यदि किसी Quality विशेष की मांग नहीं हो तो व्यर्थ के दोषों एवं शिथिलाचार की उन्मार्ग प्रवृत्ति से बचा जा सकता है। जैन साधु लकड़ी के पात्र का उपयोग करता है, क्योंकि मिट्टी के बर्तनों के टूटने की संभावना अधिक रहती है और धातु का प्रयोग निषिद्ध बतलाया गया है। पहले खेत-खलिहान में नारियल एवं तुम्बी आदि की सहज उपलब्धता के कारण उन्हीं का पात्र के रूप में उपयोग किया जाता था, परन्तु कालक्रम में जब आहार मर्यादा में परिवर्तन आया तो अधिक पात्रों की आवश्यकता महसूस होने लगी जिसके फलस्वरूप कई जगह विशेष प्रकार के पात्र बनने लगे। ___ आज उपाश्रय से तात्पर्य साधु-साध्वी के रहने के लिए बने हुए स्थान विशेष से है जबकि साधु के निमित्त तो एक जीव की हिंसा भी नहीं होनी चाहिए। पूर्व काल में तो साधुजन स्थान की गवेषणा करते थे और संयुक्त परिवारों में अतिथि आदि के लिए जो जगह होती वहाँ या धर्मशाला आदि में रूक जाते थे। ऐसे भी साधु-साध्वियों को रुकने की जगह सहज प्राप्त हो जाती थी। हम शास्त्रों में पढ़ते हैं कि भगवान महावीर आयुधशाला, हस्तिशाला या पौषधशाला में रुके. पर कहीं उपाश्रय का उल्लेख नहीं आता है। परन्त ये आजकल के वन बेडरूम, हॉल, किचन में तो आने वाले अतिथि क्या, घर के सदस्य को भी जगह देना मुश्किल होता है तब साधु-साध्वी को कहाँ रुकवाएँ? श्रावकों के लिए पौषधशालाएँ बनती थीं लेकिन वर्तमान में पौषध करने वाले श्रावक ही नहीं बचे तो ऐसी स्थिति में साधु-साध्वी के निमित्त ही उपाश्रय बनने लगे हैं। आज पाँचवीं परिष्ठापनिका समिति का पालन साधु के लिए अत्यन्त दुष्कर हो गया है। शहरों में बढ़ती आबादी ने मल-परिष्ठापन की एक बड़ी
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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