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________________ अनुभूति की वीणा भगवान महावीर के शासन की अनेक विशेषताएँ हैं। चाहे आचार पक्ष हो या विचार पक्ष सभी की अपनी गुण गरिमा और महिमा है । आचार पक्ष का सुदृढ़ होना अत्यंत आवश्यक है क्योंकि 'आचार परमो धर्म:' और आचार ही विचारों के सर्जन में सहायक बनता है। जैनाचार की मुख्य रूप से दो धाराएँ हैंश्रावकाचार और श्रमणाचार | श्रमण जीवन यद्यपि निवृत्ति प्रधान है फिर भी जीवन निर्वाह एवं शारीरिक आवश्यकताओं के कारण जो दैनिक क्रियाएँ मुनि द्वारा सम्पादित की जाती हैं, उसे श्रमणाचार की संज्ञा दी गई है। श्रमणाचार के अन्तर्गत श्रमण का समस्त क्रिया पक्ष समाहित हो जाता है। आज यदि विश्व की विविध संत परम्पराओं से जैन मुनि की तुलना करें तो श्रमणाचार श्रेष्ठतम आचार के रूप में सिद्ध होता है परन्तु भगवान महावीर द्वारा निर्दिष्ट साधु जीवन की तुलना वर्तमान साधु जीवन से की जाए तो कई परिवर्तन नजर आते हैं। उनमें से कुछ तो गीतार्थ मुनियों द्वारा देश-काल, परिस्थिति के आधार पर किए गए हैं और कुछ बदलाव मन के ढीलेपन के कारण भी आए हैं क्योंकि जो शारीरिक क्षमता, मानसिक स्थिरता एवं चारित्रिक दृढ़ता पूर्व समय में थी आज वह कठिन प्रतीत होती है। दूसरा विमर्शनीय बिन्दु यह है कि श्रावकाचार में भी समयानुकूल बदलाव आया है, जिसका प्रभाव प्रकारांतर से श्रमण वर्ग पर परिलक्षित होता है अतः श्रावक किस प्रकार श्रमण जीवन के निर्दोष पालन में सहयोगी बन सकते हैं इस पहलू को प्रस्तुत शोध कृति में उद्घाटित किया गया है। साधु अपनी आवश्यकता आदि के लिए गृहस्थ पर आश्रित है। यदि गृहस्थ जानकार न हो तो दोनों ही आवश्यक - अनावश्यक दोष के भागी बनते हैं। जैन मुनि वस्त्र, पात्र, आहार, उपाश्रय आदि जीवनोपयोगी वस्तुएँ गृहस्थ
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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