SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 452
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 390... जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन खंडित पात्र रखें। पूर्व निर्दिष्ट 45 या 15 मुहूर्त्त वाले नक्षत्रों में निधन हुआ हो तो आटे के पुतले बनाएं। फिर 'जय-जय नंदा, जय-जय भद्दा' के उच्च स्वरों से आकाश को गुंजायमान करते हुए श्मशान भूमि पर पहुँचें। वहाँ प्रमुख श्रावक उल्टा उत्तरासन धारणकर, निरवद्य भूमि पर 'क्रौं' अक्षर लिखें। फिर उस पर चिता रचाकर चन्दन आदि काष्ठ द्वारा अग्निसंस्कार करें। 31 इधर मुनिजन वसति प्रमार्जन आदि क्रिया करें। एक निष्णात मुनि उल्टे क्रम से वसति शोधन करें तथा एक मुनि उल्टी रीति से वस्त्र पहनकर जिनालय में विपरीत एवं विधिपूर्वक देववन्दन करें। आचार्यादि का देहावसान हुआ हो तो 8 प्रहर तक स्वाध्याय नहीं करें। दूसरे दिन गृहस्थ कपालं भाँति की क्रिया करें। आजकल गृहस्थों की भाँति मुनियों के अस्थि विसर्जन की क्रिया भी की जाती है। मुनियों की संख्या के अनुसार शव परिष्ठापन विधि प्राचीन समाचारी के अनुसार जब मृत श्रमण का विसर्जन करते हैं तब कम से कम सात मुनियों की अपेक्षा होती है। चार मुनि कांधिए बनते हैं, दो मुनि कुश एवं जलादि लेकर चलते हैं और एक मुनि वसति शुद्धि करता है। इस संख्या से कम मुनि हो तो उसकी विधि निम्न है • यदि पाँच मुनि हो, उसमें एक कालगत हो जाए तो दो मुनि शव वहन करें, तीसरा कुश आदि लेकर चलें और चौथा वसति रक्षण करें। • यदि पाँच से कम चार हो तो दो मुनि शव वहन करें और वे ही कुश आदि लेकर जाएं, तीसरा वसति का ध्यान रखें। • यदि तीन मुनि हों और एक कालगत हो जाएं तो रात्रि में उपधि को व्यवस्थित रखकर एक या दो मुनि उस मृतक को वहन करें। दिन में परिष्ठापन करना हो तब भी एक मुनि उपाश्रय में रहे और एक उसे वहन करें। यदि शव का विधिपूर्वक परिष्ठापन न करके मुनि ऐसे ही छोड़कर लौट आते हैं तो उन्हें गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है तथा आज्ञाभंग आदि दोष लगते हैं। व्यवहारभाष्य के अनुसार यदि साधुओं का अभाव हो तो गृहस्थ भी शव का परिष्ठापन कर सकते हैं किन्तु वहाँ यह भी कहा गया है कि गृहस्थ स्वयं शव
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy