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________________ 298...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन है कि वर्षाकाल आने पर वर्षा होने से भूमि सजल हो जाती है, चारों ओर हरियाली छा जाती है, जीवों की उत्पत्ति बढ़ जाती है, बहुत से बीज अंकुरित हो जाते हैं। मार्ग के बीच में प्राणी, बीज, हरियाली, पानी और लीलन-फूलन आदि की बहुलता हो जाती है, बहुत से स्थानों पर कीचड़ जमा हो जाता है, जमीन गीली हो जाती है, मकड़ी आदि के जाले हो जाते हैं। वर्षा के कारण मार्ग रुक जाते हैं, मार्ग पर चला नहीं जाता, मार्ग सूझता नहीं है। जनता द्वारा आक्रान्त मार्ग भी अनन्याक्रान्त सदृश प्रतीत होता है अत: इन परिस्थितियों को देखकर मुनि वर्षाकाल में एक ग्राम से दूसरे ग्राम विहार नहीं करें, अपितु एक स्थान पर ही संयत होकर वर्षावास व्यतीत करें।16 बृहत्कल्पभाष्य के अनुसार वर्षावास. में गमन करने पर छह काय की विराधना होती है। वह इस प्रकार है-वर्षा के कारण भूमि आर्द्र और सजल हो जाती है तथा लोगों का आवागमन न होने के कारण सचित्त भी हो जाती है। उस पर चलने से पृथ्वीकाय और अप्काय की विराधना होती है। जगह-जगह पर हरियाली छा जाने एवं लीलन-फूलन आने से वनस्पतिकाय की विराधना होती है। इन्द्रगोप, अलसिया आदि बरसाती क्षुद्रजन्तुओं और प्राणियों की विशेष उत्पत्ति हो जाने के कारण पदाघात से उनकी विराधना हो सकती है। हवा के तीव्र वेग से वायुकाय और अप्काय के साथ तेउकाय की विराधना निश्चित होती है। इसी के साथ कीचड़ आदि के कारण पाँव फिसलने पर गिरने की सम्भावना रहती है, जिससे कोई भी अंग-भंग हो सकता है और शरीर एवं वस्त्र कीचड़ से भर सकते हैं। स्थाणु, कंटक, जलप्रवाह आदि मार्ग के बाधक बन सकते हैं। गिरिनदी के तटवर्ती मार्ग से जाने से अभिघात हो सकता है। भीगने के भय से वृक्ष के नीचे जाकर खड़े रहें तो, उस समय वायु के प्रबल वेग से वृक्ष टूट सकता है। श्वापद, स्तेन आदि संत्रस्त कर सकते हैं। ग्लान द्वारा गीले वस्त्र पहने जाने पर उसे अजीर्ण हो सकता है। इस प्रकार संयम विराधना और आत्मविराधना से बचने के लिए साधु-साध्वी को वर्षावास में एक स्थान पर रहने का निर्देश दिया गया है।17 बृहत्कल्प टीका में वर्षावास के समय एक स्थान पर स्थिर रहने का यह कारण भी बताया गया है कि उस समय तक प्राय: गृहस्थों के घरों के सब ओर के पार्श्व भाग चटाइयों से आच्छादित, स्तंभ पर बांस की कम्बिकाओं का
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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