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________________ पात्र ग्रहण सम्बन्धी विधि- नियम... 237 नहीं होते, अतः गोचरी लाने वाले मुनि को सुविधा रहती है। पात्र होने पर संघकार्यरत पदस्थ आचार्य आदि की सेवा भी सम्यक रूप से की जा सकती है। उपसंहार जैन सिद्धान्त में जैसे अचेलक और सचेलक दोनों प्रकार की साधनाएँ मान्य हैं उसी प्रकार पात्रसहित और पात्ररहित (कर - पात्र ) साधनाएं भी विहित और मान्य हैं। साधक अपनी क्षमता के अनुसार किसी भी प्रकार की साधना को अपना सकता है। पात्र न रखना भी संयम के लिए है और पात्र रखना भी संयम के लिए है। समान उद्देश्य होने से दोनों प्रकार की साधनाएँ अविरुद्ध हैं। जब आहार ग्रहण करने की अनुज्ञा दी गई है तो आहार लेने के लिए पात्र की अनुज्ञा स्वयमेव सिद्ध होती है। जिनकल्प. और स्थविर कल्प वाले साधकों के लिए पात्र को उपधि (उपकरण) के रूप में बताया गया है। जो उपकरण संयम में साधक होते हैं, वे परिग्रह रूप नहीं होते हैं। ममत्व भाव को परिग्रह कहा गया है। अतएव पात्र रखते हुए भी साधक अपरिग्रही और निर्ग्रन्थ होता है। यदि पात्रों का ग्रहण निर्ममत्व भाव से किया जाए तो यह भी आत्मसाधना का एक प्रमुख अंग बनता है। जैन मुनि को कितने पात्र रखने चाहिए ? पात्र की शुद्धि - अशुद्धि का ज्ञान किस प्रकार करना चाहिए ? पात्र को कब रंगना चाहिए ? पात्र कहाँ सुखाने चाहिए? आदि का स्पष्ट वर्णन आचारांगसूत्र, निशीथसूत्र, व्यवहारसूत्र एवं बृहत्कल्पसूत्र में उपलब्ध होता है । आचारांगसूत्र के पन्द्रहवें अध्ययन का नाम ‘पात्रैषणा' है। इसमें पात्र ग्रहण विधि और पात्र धारण विधि का शास्त्रीय निरूपण है। इन ग्रन्थों के सिवाय यह चर्चा अन्य ग्रन्थों में लगभग नहीं है। यदि परम्परा की दृष्टि से पुनर्विचार किया जाये तो श्वेताम्बर मुनि पात्र रखते हैं, दिगम्बर मुनि पात्र नहीं रखते हैं। सार्वजनिक रूप से तीन प्रकार के पात्र रखने का विधान किया गया है। वैदिक परम्परा में भी जैन सिद्धान्त की भाँति मिट्टी, लकड़ी या तुम्बी का पात्र रखने का ही निर्देश है और ये पात्र भी दो या तीन की संख्या में ही रखे जाने चाहिए। छिद्र वाले पात्र रखने का निषेध किया गया है। मनु के अनुसार संन्यासी को अपने पास कुछ भी एकत्रित करके नहीं रखना चाहिए। उसके पास जीर्ण-शीर्ण परिधान, जलपात्र एवं भिक्षापात्र होना
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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