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________________ 236...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन प्राचीनकाल में पात्र पर एक प्रकार का ही लेप किया जाता था, यही आगम सम्मत विधि है। परन्तु वर्तमान में वार्निश, सफेद, काला, लाल आदि तीन-चार तरह के लेप किये जाते हैं, जो निश्चित रूप से जिनाज्ञा विरुद्ध है। विविध सन्दर्भो में पात्र रखने की उपयोगिता __ जैन परम्परा में मुनियों के द्वारा पात्र रखने का जो विधान है, वह मनि जीवन एवं सामाजिक जीवन में क्या प्रभाव डालता है, यह विचारणीय है? यद्यपि मुनि को करपात्री होना चाहिए और हाथ में प्राप्त भोजन ही करना चाहिए। परन्तु वर्तमान में सामूहिक जीवन की दृष्टि से पात्र रखना आवश्यक प्रतीत होता है। मुनि भिन्न-भिन्न घरों में आहार गवेषणा करते हुए की भ्रमण करते हैं। गृहस्थ को इसका ज्ञान होने से वह मुनि को निर्दोष आहार दे सकता है। __ प्रबन्धन के परिप्रेक्ष्य में यदि पात्र ग्रहण की उपयोगिता पर दृष्टिपात करें तो इससे आहार प्रबन्धन, समय प्रबन्धन आदि में विशेष सहयोग प्राप्त हो सकता है। पात्रधारी मुनि समूहगत आहार का प्रबन्धन कर सकता है। सबकी आवश्यकतानुसार उन्हें प्रासुक आहार लाकर दे सकता है तथा अन्य मुनि सामूहिक सामाजिक कार्यों में या आत्म-साधना में संलग्न रह सकते हैं। इससे सभी को अपना समय गवेषणा में नहीं देना पड़ता है और बाल-ग्लान-वृद्धतपस्वी आदि असक्षम मुनियों को भी उचित आहार प्राप्त हो सकता है। इस प्रकार पात्र के कारण समूह प्रबन्धन, आहार प्रबन्धन एवं समय प्रबन्धन में सहयोग प्राप्त होता है। यदि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इस विधि की उपयुज्यता पर चिन्तन किया जाए तो स्पष्ट होता है कि बढ़ते प्रदूषण के कारण अनावृत्त भोजन सामग्री दूषित हो जाती है, किन्तु पात्र के कारण उससे बच सकते हैं। इससे अनेक रोगों से भी बचाव हो सकता है। पात्र के माध्यम से किसी भी पदार्थ की मात्रा ज्ञात हो जाती है, जिससे अति आहार या न्यून आहार से उत्पन्न होने वाली समस्याएँ कम होती हैं। आज सेवा के भाव घटते जा रहे हैं। पात्र धारण करने से उन भावों में वृद्धि हो सकती है। पात्र में आहार करने से भोजन नीचे नहीं गिरता, जिससे आहार के अपव्यय एवं जीवोत्पत्ति दोनों का समाधान हो सकता है। काष्ठ पात्र में गृहीत भोजन विकृत नहीं होता तथा ग्लान आदि के लिए लाया गया दूध आदि गरम रहता है। साथ ही काष्ठ पात्र धूप आदि में या उष्ण पदार्थ से उष्ण
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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