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________________ प्रतिलेखना एवं प्रमार्जना सम्बन्धी विधि-नियम...213 46. ओघनियुक्ति, 269-70 47. रात्रिक प्रतिक्रमण में देववंदन करते समय कही जाने वाली चौथी स्तुति आवश्यकचूर्णि, चैत्यवंदन महाभाष्य आदि ग्रन्थानुसार आचरणीय है। पंचवस्तुक, पृ. 117 48. पंचवस्तुक, गा. 257-258 49. 'सूत्र अर्थ सांचो सद्दहुं...........इत्यादि मुखवस्त्रिका प्रतिलेखन के ही पच्चीस बोल जानने चाहिए। 50. कुछ परम्परा में स्थापनाचार्य के ऊपर-नीचे कुल पाँच मुँहपत्ति रखते हैं और किन्हीं में तीन मुँहपत्ति रखते हैं। 51. साधुविधिप्रकाश, पृ. 4 52. (क) तिलकाचार्य सामाचारी, पृ. 43 (ख) सुबोधा सामाचारी, पृ. 21-22 53. विधिमार्गप्रपा-सानुवाद, पृ. 125 54. वही, पृ. 338 55. साधुविधिप्रकाश, पृ. 4 56. सइ पम्हलेण मिउणा, चोप्पडमाइरहिएण जुत्तेणं । अविद्धदंडगेणं, दंडग पुच्छेण जुत्तेणं नऽन्नेणं ॥ पंचवस्तुक, गा. 265 57. वही, गा. 264 58. साधुविधिप्रकाश, पृ. 5 59. वही, पृ. 5 60. पंचवस्तुक, गा. 263 61. यतिदिनचर्या, गा. 87-88, उद्धृत, धर्मसंग्रह, भा. 3, पृ. 81 62. अपमज्जणंमि दोसा, जणगरहा पाणिघाय मइलणया। पायपमज्जण उवही, धुवणा धुवणंमि दोसा उ॥ पंचवस्तुक, गा. 266 63. साधुविधिप्रकाश, पृ. 4-5 64. साधुविधिप्रकाश, पृ. 5-6 65. वही, पृ. 5-6
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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