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________________ प्रतिलेखना एवं प्रमार्जना सम्बन्धी विधि-नियम...183 एवं अतिथि भवन के रूप में भी बनने लगे हैं। एक भवन बनाकर उसका उपयोग अनेकविध कार्यों के लिए कर लिया जाता है। जैसे- एक तल्ला साधु भगवन्तों के लिए, एक माला साध्वी जी भगवन्तों को ठहराने के लिए, एक तल्ला अतिथियों के लिए और एक माला भोजनशाला-आयंबिलशाला आदि के लिए, इस प्रकार अनेकों कार्य 'आराधना भवन' के नाम पर पूरे कर लेते हैं। ऐसे स्थानों की साफ-सफाई दंडासन के द्वारा कैसे संभव हो सकती है? इस विवेचन का मतलब यह नहीं कि साधु अपने उपयोगी स्थान का प्रमार्जन दण्डासन द्वारा न करें, उन्हें तो स्वयं के लिए अधिकृत स्थान का प्रमार्जन दंडासन द्वारा ही करना चाहिए। उसके बाद सामूहिक स्थान की अपेक्षा झाडू आदि किसी भी वस्तु का उपयोग हो, वह उससे कोई मतलब न रखें। यदि विशुद्ध संयम आराधना की दृष्टि से देखें तो आज वसति शुद्धि विचारणीय प्रश्न बन चका है। जहाँ रिसेप्शन-विवाह-प्रीतिभोज जैसे आयोजन होते हों, वहाँ संयमधारी साधु-साध्वियों का रहना किसी भी स्थिति में कल्याणकारी नहीं है। संस्कृत उक्ति है कि 'संसर्गजा: दोषगुणाः भवन्ति'- अच्छे वातावरण से गुणों का आविर्भाव होता है और विकार युक्त वातावरण से दोषों की उत्पत्ति होती है। अत: संघ-समाज के पदाधिकारियों एवं प्रमुख कार्यकर्ताओं को इस पर गहराई से सोचना चाहिए। इस भौतिक युग में उपाश्रय की सफाई के लिए वैकम क्लिनर (Vaccum Cleaner) आदि यान्त्रिक साधनों का भी उपयोग होने लगा है तथा आधुनिक सुख-सुविधाएँ प्रदान करने के लिए एसी, गीजर, लिफ्ट (A.C, Giezer, lift) आदि भी लगवाए जा रहे हैं। बड़े भोज आदि के पश्चात बहुत अधिक पानी से धुलाई की जाती है। ऐसे वातावरण में संयम साधना हो या सामायिक साधना वह विशुद्ध कैसे हो सकती है? अत: उपाश्रय निर्दोष होना चाहिए। वसति प्रमार्जना का अधिकारी- पंचवस्तुक के अनुसार वसति की प्रमार्जना गीतार्थ मुनि के द्वारा की जानी चाहिए। वसति प्रमार्जन का मूल अधिकारी गीतार्थ को बताया है, क्योंकि वह सूक्ष्म प्रज्ञावान एवं गाम्भीर्यादि गुणों से युक्त होता है। अत: वसति प्रमार्जन एकाग्रचित्त और उपयोगपूर्वक कर सकता है। इस क्रिया में त्रियोग की शुद्धि आवश्यक है। जैन मुनि की अधिकांश प्रवृत्तियाँ जैसे स्वाध्याय, कालग्रहण, स्वाध्याय प्रवेदन आदि वसति शुद्धि पर ही संभवित है।57
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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