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________________ 182... जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन प्रावधान नहीं है। उनमें सम्पन्न की जाती हैं। कुछ क्रियाएँ गुरु तो के समक्ष कुछ आत्मसाक्षीपूर्वक वसति प्रमार्जन विधि चक्षु युगल से वस्त्र को अच्छी तरह देखना प्रतिलेखना है और भूमि आदि को रजोहरण से पूंजना यानी साफ करना प्रमार्जना है। वस्त्र की मात्र प्रतिलेखना की जाती है जबकि वसति का प्रतिलेखन और प्रमार्जन दोनों किया जाता है। साधु सामाचारी के अनुसार पूर्वोक्त दस उपकरणों की प्रतिलेखना करने के पश्चात वसति (उपाश्रय) की प्रमार्जना करनी चाहिए। वसति प्रमार्जन किससे ? साधु के रहने योग्य स्थान को दण्डासन के द्वारा स्वच्छ करना वसति प्रमार्जन कहलाता है। आचार्य हरिभद्रसूरि के अनुसार वसति की प्रमार्जना कोमल दसिया वाले, चिकनाई, मैल आदि से रहित तथा परिमाण युक्त दण्ड के साथ बँधे हुए दंडासन से करनी चाहिए। वसति प्रमार्जन हेतु झाडू आदि अन्य साधनों का उपयोग नहीं करना चाहिए | 56 यदि वर्तमान कालिक स्थितियों पर विचार करें तो आज उपाश्रय की साफ-सफाई, झाडू-बुहारी आदि प्रसाधनों से होती है। इसके कुछ मुख्य कारण हैं - प्रथम तो आजकल उपाश्रय या पौषधशालाएँ आधुनिक साधनों से युक्त धर्मशालाओं के रूप में बनायी जाती हैं तो उसे स्वच्छ रखना भी संघ का कर्त्तव्य बन जाता है। साधु-साध्वियों के लिए तो उनके उपयोगी स्थान की प्रमार्जना करने का ही नियम है। दूसरा कारण यह है कि पूर्व काल में साधुओं के निमित्त उपाश्रय बनाने की परम्परा नहीं थी, गृहस्थ द्वारा स्वयं के लिए बनाये गये मकान में ही साधु को स्थान मिल जाता था। चातुर्मास के अतिरिक्त शेष काल में मुनि वर्ग भी एक स्थान पर एक-दो रात्रि के सिवाय अधिक नहीं ठहरते थे। जब एक स्थान पर लम्बे समय तक रुकना ही न हो, तब अधिक स्थान की आवश्यकता भी क्यों होगी? फिर गृहस्थ की वसति में कुछ समय के लिए स्थान भी छोटा ही मिलता था और उस स्थान की प्रमार्जना दण्डासन से हो जाती थी अतः उत्सर्ग मार्ग से झाडू आदि का उपयोग करना निषिद्ध है। साधु के योग्य स्थान की प्रमार्जना (सफाई) दण्डासन से ही होनी चाहिए । तीसरा कारण यह है कि कुछ उपाश्रय धर्मशालाओं, सामूहिक आयोजनों
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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