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________________ 142... जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन प्रतिलेखन - पिच्छी - रजोहरण: एक विमर्श जैन धर्म के सभी सम्प्रदायों में रजोहरण मुनि का एक आवश्यक उपकरण माना गया है। इसे मुख्यतः सूक्ष्मातिसूक्ष्म जीवों की रक्षा के उद्देश्य से रखते हैं। इसे मुनि लिंग भी कहा गया है। प्राचीन ग्रन्थों में इसके अनेक पर्यायवाची नाम प्रचलित हैं। दशवैकालिकसूत्र में इसके रजोहरण, पायपुंछन और गोच्छग- ऐसे तीन नाम मिलते हैं।52 मूलाचार और भगवती आराधना 54 में इसके लिए प्रतिलेखन नाम का उल्लेख है। परवर्ती दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में प्रतिलेखन के स्थान पर 'पिच्छी' शब्द का प्रयोग मिलता है। 55 श्वेताम्बर परम्परा के उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, स्थानांग, बृहत्कल्प, निशीथ आदि सूत्रों में इसके स्वरूप, प्रयोजन आदि का विस्तृत विवेचन उपलब्ध है |56 विशेष रूप से निशीथ भाष्य आदि में रजोहरण और पायपुंछन को पर्यायवाची ही माना गया है। कुछ आचार्यों ने इन शब्दों के व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ के आधार पर पादप्रोंछन, पात्रप्रोंछन और रजोहरण इन तीनों को अलग-अलग उपकरण माना है। तदनुसार पादप्रोंछनपाँव पोंछने के लिए, पात्रप्रोंछन- पात्रों की सफाई के लिए और रजोहरण - धूल एवं जीव-जन्तुओं के प्रमार्जन के लिए उपयोग में लाया जाता है। वर्तमान की श्वेताम्बर परम्परा में उक्त तीनों अलग-अलग रखे जाते हैं, किन्तु प्राचीन काल में ये तीनों स्वतन्त्र उपकरण रहे होंगे, यह मानना मुश्किल है अन्यथा आगमिक व्याख्याकार इन्हें पर्यायवाची नहीं मानते। डॉ. सागरमल जैन के मन्तव्यानुसार निशीथसूत्र के दूसरे उद्देशक के प्रारंभ में, दशवैकालिक अध्ययन-4 तथा प्रश्नव्याकरणसूत्र अध्याय - 5 में इन्हें अलग-अलग उपकरण कहा गया है। किन्तु दशवैकालिक में जहाँ रजोहरण, पायपुंछन और गोच्छग शब्द का प्रयोग हुआ है, उस स्थल को देखने से ऐसा लगता है कि ये पर्यायवाची भी रहे होंगे, क्योंकि वहाँ पीढक, फलक, शय्या और संथारग- ये चार शब्द मुख्यतया पर्यायवाची रूप में ही प्रयुक्त हैं। अतः दशवैकालिक के आधार पर इन तीनों को अलग-अलग उपकरण मानना उचित नहीं लगता । वर्तमान में भी ये तीनों स्वरूप की दृष्टि से एक समान ही हैं। वस्तुतः जैसे-जैसे साफ-सफाई का विवेक बढ़ता गया, वैसे-वैसे इन्हें अलग-अलग कर दिया गया। व्यवहारतः जिससे धूल साफ की जाती हो, उससे पाँव साफ करना और
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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