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________________ मुनियों के पारस्परिक आदान-प्रदान (साम्भोगिक) सम्बन्धित... ...121 शुश्रूषा भी नहीं करनी चाहिए। पारस्परिक व्यवहारों के निषेध का मुख्य कारण यह है कि इन प्रवृत्तियों से अति सम्पर्क, मोहवृद्धि होने के साथ-साथ जन साधारण में कई प्रकार की कुशंकाएँ उत्पन्न हो सकती हैं। इस तरह हम देखते हैं कि जैनागमों में सांभोगिक का स्वरूप, उसके प्रकार, पारस्परिक आदान-प्रदान के नियम, समानकल्पी साधु-साध्वियों के विधि-निषेध आदि का सुव्यवस्थित वर्णन है। ___ यदि इस सम्बन्ध में आगमिक व्याख्या साहित्य का अवलोकन करें तो वहाँ भी व्यवहारभाष्य, बृहत्कल्पभाष्य, निशीथभाष्य एवं इनकी टीकाओं, चूर्णियों में विवेच्य विषय का सुविस्तृत स्वरूप उपलब्ध होता है। इससे सिद्ध है कि सांभोगिक व्यवस्था प्राचीनतम है। यद्यपि प्राचीनकाल में अर्ध भरत क्षेत्र में सब संविग्न साधुओं की संभोजविधि एक रूप थी। तत्पश्चात कालदोष से ये सांभोजिक हैं और ये असांभोजिक हैं-इस प्रकार का विभाग प्रवृत्त हुआ। यदि हम त्रिविध परम्पराओं के सन्दर्भ में इसका मूल्यांकन करें तो कह सकते हैं कि जैन धर्म की सभी आम्नायों में आज भी यह धर्म व्यवस्था जीवन्त है। सामान्यतया वर्तमान परम्परा में आचार्य अथवा साथ-साथ विहार करने वाले वर्ग में जो वरिष्ठ अथवा पदवीधारी होता है वह यथासम्भव भिक्षा के लिए नहीं जाता है। अत: वर्तमान में पूरे संघाडे के लिए कुछ मुनिगण ही भिक्षा के लिए जाते हैं और उनके द्वारा लाई गई भिक्षा का संविभाजन संघाडे के वरिष्ठ साधु या पदवीधारी के द्वारा किया जाता है। इस प्रकार वर्तमान में स्वगच्छ अथवा स्ववर्ग में भिक्षा एवं उपधि आदि के आदान-प्रदान की परम्परा है, किन्तु प्राचीन काल में ऐसी परम्परा नहीं थी। अन्तकृतदशा आदि आगमों में गौतम स्वामी को स्वयं भी भिक्षा हेतु जाते हुए बताया गया है। अत: भिक्षा तो स्वकीय स्वतन्त्र रूप से लाते थे, परन्तु आगम के अनुसार लाई हुई भिक्षा को गुरु अथवा वरिष्ठ पदवीधारी साधु को बताकर उसके दोषों की शुद्धि करने तथा सवर्गीय साधुओं में उस लाई हई भिक्षा में से यथेच्छा ग्रहण करने हेतु निमन्त्रित करने की परम्परा थी। इस प्रकार भिक्षा, उपधि आदि के सम्बन्ध में समान सामाचारी और सवर्गीय साधुओं में आदान-प्रदान होता था, किन्तु अन्य वर्ग एवं अन्य परम्परा के साधुओं में परस्पर आदान-प्रदान की प्रवृत्ति नहीं थी। आगमों में हमें ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता है कि जहाँ भिन्न वर्गों में आदान-प्रदान की परम्परा हो।
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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