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________________ 120...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन नहीं होता है, तो भी वे साधु-साध्वी एक आचार्य की आज्ञा में होने से और एक गच्छ बद्ध होने से सांभोगिक कहे जाते हैं।16 इस सूत्र में सांभोगिक व्यवहार के लिए अन्यगण में जाने की विधि भी कही गई है।17 __ व्यवहारसूत्र में कहा गया है कि जो साधु और साध्वियाँ साम्भोगिक हैं उन्हें परस्पर एक-दूसरे के समीप आलोचना करना नहीं कल्पता है अर्थात साध और साध्वी समानकल्पी होने के बावजूद साधु अपने दोषों की आलोचना एवं प्रायश्चित्त आचार्य-उपाध्याय आदि के पास ही करें और साध्वियाँ अपनी आलोचना प्रवर्तिनी, स्थविरा आदि योग्य श्रमणियों के पास ही करें, यही विधिमार्ग या उत्सर्ग मार्ग है।18 अपवादमार्ग के अनुसार किसी गण में साधु या साध्वियों में कभी कोई आलोचना श्रवण के योग्य न हो या प्रायश्चित्त देने योग्य न हो तब परिस्थितिवश साधु स्वगच्छीय साध्वी के पास आलोचना, प्रतिक्रमण आदि कर सकता है और साध्वी स्वगच्छीय साधु के पास आलोचना आदि कर सकती है।19 __इस विधान से यह स्पष्ट है कि सामान्यतया एक गच्छ के साधु-साध्वियों को भी परस्पर आलोचना, प्रायश्चित्त नहीं करना चाहिए। पारस्परिक आलोचना के निषेध का मुख्य कारण यह है कि कदाच साधू या साध्वी को चतुर्थव्रत भंग सम्बन्धी आलोचना करनी हो और आलोचना सुनने वाला साधु या साध्वी भी कामवासना से पराभूत हो, तो ऐसे अवसर पर उसे अपने भाव प्रकट करने का अवसर मिल जाता है और वह कह सकता है कि 'तुम्हें प्रायश्चित्त लेना ही है तो एक बार मेरी इच्छा भी पूर्ण कर दो, फिर एक साथ प्रायश्चित्त हो जाएगा।' इस प्रकार परस्पर आलोचना के कारण एक दूसरे का अधिकाधिक पतन होने की संभावना रहती है। अन्य दोषों की आलोचना करते समय भी एकांत में साधु-साध्वी का सम्पर्क होने से ऐसे दोषों के उत्पन्न होने की सम्भावना रहती है। ऐसे ही कारणों से स्वाध्याय या वाचना आदि के सिवाय साधु-साध्वी के परस्पर सभी प्रकार का संपर्क वर्जित है। इसी कारण बृहत्कल्पसूत्र में साधु को साध्वियों के उपाश्रय में खड़े रहना, बैठना, आहार करना आदि 16 प्रकार के कृत्यों का निषेध किया गया है। इसी प्रकार सांभोगिक साधु-साध्वियों को परस्पर एक-दूसरे की सेवा
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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