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________________ अध्याय - 4 मुनियों के पारस्परिक आदान-प्रदान (साम्भोगिक) सम्बन्धित विधि-नियम जैन मुनि भिक्षाचर्या के माध्यम से उचित मात्रा में आहार आदि ग्रहण करते हैं। यहाँ प्रश्न होता है कि मुनि को प्राप्त आहार में से सहवर्ती अन्य मुनियों को कुछ देना हो तो कैसे संभव है? इसके जवाब में कहा जाता है कि मुनि के द्वारा आहार ग्रहण करने की दो विधियाँ हैं । दिगम्बर परम्परा के अनुसार मुनि जिस घर में भिक्षा प्राप्त करता है, वह उसे वहीं उदरस्थ कर लेता है, क्योंकि वह पाणिपात्री होता है अतः आहार को अपने निवास स्थल पर नहीं ले जाता। इसलिए उनमें परस्पर आहार के आदान-प्रदान का प्रश्न ही खड़ा नहीं होता है। किन्तु श्वेताम्बर परम्परा में जो मुनि पात्र के द्वारा भिक्षा ग्रहण करते हैं, वे उसे उपाश्रय आदि में लाकर उदरस्थ करते हैं। उनके लिए यह प्रश्न दो दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। प्रथम तो यह कि वे अपने वर्ग में उस भिक्षा का आदान-प्रदान करें? अथवा दूसरा यह कि वे किसी असहाय, निर्बल, क्षुधाव्याकुल गृहस्थ अथवा तापस आदि अन्य परम्परा के भिक्षु को वह आहार प्रदान करें? इस सम्बन्ध में यदि हम आगमिक आधारों को ढूँढ़ते हैं तो पाते हैं कि श्वेताम्बर परम्परा में प्रथम तो खुले पात्र में भिक्षा लाने का निषेध किया गया है। साथ ही खुले स्थान में आहार ग्रहण करने का भी निषेध किया गया है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने स्पष्ट रूप से यह निर्देश दिया है कि मुनि को अपने लिए प्राप्त भिक्षा में से किसी अन्य व्यक्ति को आहार नहीं देना चाहिए । इस सम्बन्ध में उनका कथन यह है कि भिक्षु अपने लिए ही भिक्षा माँगकर लाता है और गृहस्थ भी उसके उपभोग के लिए भिक्षा देते हैं, अतः अपनी भिक्षा में से किसी को देना दाता की आज्ञा या इच्छा का उल्लंघन है। इससे अदत्तादान का दोष भी लगता है। अत: जैन साधु-साध्वी अपने लिये प्राप्त की
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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