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________________ अवग्रह सम्बन्धी विधि-नियम...109 सार रूप में कहा जा सकता है कि जैन संघ में साधु-साध्वी के लिए भिक्षाटन, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय आदि के निमित्त गुर्वाज्ञा तथा स्थान, आहार, वस्त्र, पात्रादि की प्राप्ति हेतु गृहस्थ स्वामी की आज्ञा लेना अनिवार्य है इससे तीसरे महाव्रत का पोषण एवं मुनि धर्म की नैतिकता का दिग्दर्शन होता है। अवग्रह का मूल हार्द यही है। आधुनिक परिप्रेक्ष्य में अवग्रह विधि की उपयोगिता अवग्रह विधि की मूल्यवत्ता पर यदि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में चिंतन किया जाए तो वर्तमान में बढ़ते प्रदेशवाद, क्षेत्रवाद, भू-माफिया, जमीन-जायदाद के लिए होती लड़ाइयाँ, आपस में बढ़ते वैमनस्य आदि में अवग्रह का नियम बहुत लाभदायक हो सकता है। अवंग्रह के अन्तर्गत किसी भी वस्तु या क्षेत्र का उपयोग उसके स्वामी की आज्ञा से किया जाता है, जिससे भय की स्थिति नहीं रहती और किसी भी कार्य को निश्चिन्तता एवं निर्भीकतापूर्वक सम्पन्न किया जा सकता है। जबकि अनधिकारपूर्वक दूसरों की भूमि आदि पर कब्जा कर लिया जाता है, छोटीछोटी बातों को लेकर भाई-भाई, एक ही सम्प्रदाय के लोग कोर्ट में चले जाते हैं। आज अयोध्या मामला, अंतरिक्ष पार्श्वनाथ का मुद्दा आदि इसी के उदाहरण हैं। अत: अवग्रह सिद्धान्त को नैतिकता के साथ निभाया जाए तो कई पारिवारिक एवं साम्प्रदायिक समस्याओं का समाधान हो सकता है। इसी प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर जो युद्ध स्वयं के वर्चस्व को स्थापित करने हेतु हो रहे हैं तथा एक दूसरे के क्षेत्रों में जो अनधिकारिक प्रवेश किया जा रहा है, इन समस्याओं के समाधान में अवग्रह का नियम बहुपयोगी हो सकता है। ___ यदि प्रबंधन के परिप्रेक्ष्य में अवग्रह की उपयुक्तता पर चिंतन किया जाए तो इसके द्वारा विशेष रूप से तनाव प्रबंधन, परिवार प्रबंधन, राष्ट्र प्रबंधन आदि में सहयोग प्राप्त हो सकता है। यदि किसी स्थान पर अतिथि रूप में अथवा पेइंग-गेस्ट के रूप में रुका जाए तो भी उसका उपयोग इसी तरह किया जाए, जिससे आपसी सम्बन्धों में मृदुता बनी रहे तथा क्लेश आदि उत्पन्न न हो। इसी प्रकार चोरीपूर्वक रहने से भय आदि की स्थिति बनी रहती है, जो तनाव वृद्धि का कारण बनता है। अत: अवग्रह के माध्यम से मालिक की इच्छा के अनुसार प्रवृत्ति करने पर तनाव के कारण ही उत्पन्न नहीं होते। इससे तनाव प्रबंधन में
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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