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________________ 108...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन अवग्रह याचना की आवश्यकता क्यों? यह सुविदित है कि जैन संघ में दीक्षित होने वाली भव्य आत्माएँ पाँच महाव्रतों को धारण करती हैं। उसके अन्तर्गत तीसरे महाव्रत में सब प्रकार के अदत्तादान का प्रत्याख्यान करते हुए वे प्रतिज्ञा लेते हैं कि 'आज से वे किसी भी वस्तु को उसके स्वामी या अधिपति की अनुमति लिये बिना ग्रहण नहीं करेंगे' क्योंकि अनुमति लिये बिना किसी वस्तु को लेना चोरी कहलाता है। अतएव तीन करण, तीन योग से चोरी का सर्वथा त्याग करने में प्रतिज्ञारत मुनि के लिए यह अनिवार्य है कि उसे अदत्त वस्तु अनुमति पूर्वक ग्रहण करना चाहिए। इस तरह अदत्तादान की निवृत्ति एवं अचौर्य महाव्रत के संरक्षणार्थ यह विधान किया गया है। इस नियम के माध्यम से साधु-साध्वियों को उनके द्वारा गृहीत अदत्तादान विरमण महाव्रत का स्मरण कराया जाता है। अवग्रह की आवश्यकता का दूसरा कारण यह है कि जब व्यक्ति अनगार धर्म को स्वीकार करता है और स्वयं सब तरह के पाप कर्म न करने, दूसरों से न करवाने एवं करते हुए का अनुमोदन न करने की प्रतिज्ञा करता है तब वह जीवन निर्वाह के लिए गृहस्थ के द्वारा दी गई भिक्षा का ही सेवन करता है और आवश्यक वस्तुओं को दूसरे की अनुमति से ही ग्रहण कर सकता है। इसीलिए कहा गया है कि साधु गाँव से लेकर राजधानी में जहाँ कहीं भी जायें या रहें वे स्वयं बिना दी हुई वस्तु का ग्रहण नहीं करते, दूसरों से भी बिना दी हुई वस्तु ग्रहण नहीं करवाते हैं। और बिना दी हुई वस्तु ग्रहण करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करते। यहाँ तक कि जिनके साथ वे प्रव्रजित हुए हैं और जिनके साथ वे रहते हैं उनके उपकरणों में से भी यदि उन्हें किसी की आवश्यकता पड़ जाये तो उनकी अनुमति के बिना उसे भी ग्रहण नहीं कर सकते हैं। यदि पुराने उपकरण विनष्ट हो गये हों और उसे कोई नया उपकरण लेना होता है तो वे पर्व में उनकी अनुमति लेते हैं। अनुमति लेने के पश्चात भी उस उपकरण को भलीभांति देखकर और प्रमार्जन करके ही ग्रहण करते हैं। ताकि किसी जीव-जन्त की विराधना न हो जाये। जब अपने साधर्मिक (सहवर्ती मुनियों) की वस्तु भी अनुमति के बिना नहीं ली जा सकती तब आवास (उपाश्रय), आहार-पानी, वस्त्र-पात्र आदि वस्तुएँ गृहस्थ की अनुज्ञा के बिना कैसे ग्रहण की जा सकती है?
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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