SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 162
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 100...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन उपर्युक्त वर्णन का फलित यह है कि जैन साध-साध्वी के लिए पूर्वोक्त 18 आचार स्थान यावज्जीवन के लिए स्वीकारने योग्य हैं, अन्यथा वह संयम मार्ग से पतित होते हए यथार्थ धर्म से भी विचलित हो सकता है। इनमें से दो-तीन आचार स्थान विधि-निषेध रूप भी हैं, जो मुनियों की रुग्णादि अवस्था को ध्यान में रखते हुए निर्दिष्ट हैं। उपसंहार दशवैकालिकसूत्र में प्रतिपादित मुनि आचार के अठारह स्थानों में पाँच महाव्रत मूलगुण रूप हैं, शेष उत्तरगुण रूप हैं। जिस प्रकार भीत और कपाट युक्त गृह के लिए भी दीपक का प्रकाशित होना और व्यक्ति का जागृत रहनादोनों रक्षा के कारणभूत होते हैं, उसी प्रकार पाँच महाव्रतधारी साधु के लिए उत्तरगुण महाव्रत अनुपालन में हेतुभूत हैं। जैसे पाँच महाव्रतों की रक्षा के लिए पच्चीस भावनाएँ होती हैं वैसे ही छह व्रत और छह काय की रक्षा के लिए अकल्पग्रहण, गृह पात्र, पर्यंक, निषद्या, स्नान और विभूषा- ये छह स्थान वर्जनीय हैं। इससे सुस्पष्ट है कि मुनि के लिए मूलगुण और उत्तरगुण रूप आचार स्थान समान रूप से पालनीय है। यह वर्णन दशवैकालिकसूत्र एवं दशवैकालिकचूर्णि में प्राप्त होता है। सन्दर्भ-सूची 1. प्रशमरति प्रकरण, 143 2. कल्पसूत्र सुखबोधिनी टीका-गुजराती भाषान्तर, पृ. 1 3. श्री भिक्ष आगम विषय कोश, भा. 2, पृ. 167 4. (क) आवश्यक नियुक्ति-मलयगिरिवृत्ति 121 (ख) निशीथभाष्य, संपा. अमरमुनि, 4/5933 (ग) बृहत्कल्पभाष्य, गा. 6360-6437 (घ) भगवती आराधना, 423 (ङ) मूलाचार-समयसाराधिकार, 118 (च) पंचाशकप्रकरण, 17/6-40 5. पंचाशकप्रकरण, 17/18 6. वही, 17/20-22
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy