SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 159
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन मुनि के सामान्य नियम... 97 होती है और न अन्य किसी विराधना की संभावना बनती है, इसलिए वह अनाचार नहीं है। अस्तु, जो कार्य सौन्दर्य, शोभा या गौरव की दृष्टि से किए जायें वे अनाचार हैं, किन्तु उन्हीं कार्यों को रुग्णावस्था आदि विशेष परिस्थिति में किया जाये तो अनाचार नहीं है । 49 अठारह आचार स्थान शिष्ट व्यक्तियों द्वारा आचीर्ण ज्ञान दर्शन आदि के क्रियाकलाप आचार कहलाते हैं। मुख्य रूप से आचार के पाँच प्रकार हैं- 1. ज्ञानाचार 2. दर्शनाचार 3. चारित्राचार 4. तपाचार 5. वीर्याचार | सामान्य रूप से श्रमण आचार के अठारह स्थान हैं। दशवैकालिकसूत्र के छठवें अध्ययन में इस विषय का सम्यक प्रतिपादन है। इसमें इन स्थानों को 'महाचार' कहा गया है। वास्तविकता यह है कि दशवैकालिक के छठवें अध्ययन के दो नामों में दूसरा नाम ‘महाचारकथा' है। पहला नाम 'धर्मार्थकाम' का भावार्थ है- श्रुत- चारित्ररूप धर्म का प्रयोजनभूत जो मोक्ष है, एक मात्र उसी की कामना (अभिलाषा) करने वाले सत्पुरुष। महाचारकथा का अर्थ है - सत्पुरुषों के महान आचार का कथन । दोनों का संयुक्त अर्थ होता है- धर्म साधना के द्वारा मोक्ष के इच्छुक महापुरुषों के आचारों का कथन करने वाला। इसके नाम से ही स्पष्ट है कि मोक्षार्थी साधकों के लिए उक्त 18 स्थान अपरिहार्य रूप से आचरणीय है । कर्मबन्धन से मुक्त होने का उत्तम मार्ग है सम्यग्दर्शन आदि धर्म का आचरण। मोक्ष साध्य है, उसकी प्राप्ति के लिए श्रुत चारित्र रूप या सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय रूप धर्म साधन है और महाव्रती साधु-साध्वियों के द्वारा सद्धर्म के आचरण का नाम आचार या महाचार है अथवा चारित्र धर्म का सम्यक परिपालन करने के उद्देश्य से जो मौलिक नियम निर्धारित किए जाते हैं, नाम आचार है। उनका श्रमण द्वारा आचरणीय 18 स्थान जैन धर्म के संवाहक साधु-साध्वियों द्वारा सदैव परिपालनीय अठारह स्थान निम्न हैं-50 1-6. व्रत षट्क- अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह एवं रात्रिभोजन त्याग का पालन करना | 51
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy