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________________ 96... जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन किया जा सकता है। जीवन को व्यसनमुक्त रखने से वह अनेक दोषों से मुक्त रहता है। अन्य विषयों में मन का भटकाव न होने से चित्त की स्थिरता बढ़ती है, बुद्धि आदि का विकास होता है तथा समाज पर एक विशेष प्रभाव पड़ता है। यदि अनाचीर्ण की प्राचीनता के सम्बन्ध में मनन किया जाये तो ज्ञात होता है कि दशवैकालिकसूत्र का तीसरा अध्ययन अनाचीर्ण से ही सम्बन्धित है इसलिए इसका नाम 'क्षुल्लकाचार कथा' है। दशवैकालिक चूर्णि एवं टीका में इसकी विस्तृत चर्चा प्राप्त होती है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि दशवैकालिकसूत्र में अनाचीर्णों की संख्या का उल्लेख नहीं है तथा अगस्त्य चूर्णि और जिनदासचूर्णि में भी तत्सम्बन्धी निर्देश नहीं है। समयसुन्दर कृत दीपिका में 54 संख्या का निर्देश है। यद्यपि अगस्त्यसिंह ने संख्या का उल्लेख नहीं किया है फिर भी उनके अनुसार अनाचारों की संख्या 52 हैं, पर दोनों में अन्तर यह है कि अगस्त्यसिंह ने राजपिण्ड और किमिच्छक को एवं सैन्धव और लवण को पृथक्-पृथक् न मानकर एक-एक माना है । जिनदासगणि ने राजपिण्ड और किमिच्छक को एक न मानकर अलग-अलग माना है तथा सैन्धव और लवण को एवं गात्राभ्यंग और विभूषण को एक-एक माना है। दशवैकालिक टीका में आचार्य हरिभद्रसूरि ने अनाचारों की संख्या 53 मानी है, उन्होंने राजपिण्ड और किमिच्छक को एक तथा सैन्धव और लवण को पृथक-पृथक माना है। इस प्रकार अनाचारों की संख्या 54,53 और 52 प्राप्त होती है। संख्या में भेद होने पर भी तात्त्विक दृष्टि से कोई भेद नहीं है। अनाचारों का निरूपण संक्षेप में भी किया जा सकता है जैसे सभी सचित्त वस्तुओं का परिहार एक माना जाए तो अनेक अनाचार स्वतः कम हो सकते हैं। यहाँ यह भी ध्यान देने जैसा है कि कुछ नियम उत्सर्ग मार्ग में अनाचार हैं, परन्तु अपवादमार्ग में वे अनाचार नहीं रहते तथा जो कार्य पापयुक्त हैं और जिनका हिंसा से साक्षात सम्बन्ध हैं वे कार्य प्रत्येक परिस्थिति में अनाचीर्ण ही हैं जैसे- सचित्त भोजन, रात्रिभोजन आदि। जो नियम संयम साधना की विशेष शुद्धि के लिए बनाए गए हैं, वे अपवाद में अनाचीर्ण नहीं रहते, जैसे मुनि को गृहस्थ के घर बैठने का निषेध किया गया है परन्तु रोगी हो, तपस्वी हो, वृद्ध हो तो उस परिस्थिति में बैठ सकता है । उसमें न तो ब्रह्मचर्य के प्रति शंका उत्पन्न
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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