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________________ जैन मुनि के सामान्य नियम... 77 वैयक्तिक, सामाजिक, सामुदायिक एवं व्यावहारिक प्रबन्धन के क्षेत्र में बहुपयोगी है। अचेलकत्व के माध्यम से व्यक्तिगत स्वार्थ को न्यून किया जा सकता है, वहीं औद्देशिक एवं शय्यातर पिण्ड कल्प के माध्यम से व्यावहारिक जीवन में लेनदेन तथा किसी के यहाँ अतिथि रूप में रहने की मर्यादा आदि का ज्ञान होता है। राजपिण्ड आदि की मर्यादा रखने पर आज के पाँच सितारा होटलें और बड़े लोगों की पार्टियों के प्रति मोह से बचा जा सकता है। कृतिकर्म एवं ज्येष्ठ कल्प के पालन से परिवार समुदाय एवं कार्यालय आदि में आदर और विनय भाव आदि में वृद्धि होती है तथा आपसी सम्बन्ध सुदृढ़ बनते हैं। प्रतिक्रमण कल्प के द्वारा स्वदोषों का निरीक्षण एवं उसमें सुधार होने से जीवन का विकास होता है । पर्युषणाकल्प के माध्यम से अहिंसा आदि धर्मों का तथा साधु जीवन की मर्यादाओं का पालन होता है। आधुनिक समस्याओं के सन्दर्भ में यदि दस कल्पों की प्रासंगिकता पर विचार किया जाए तो इसके द्वारा आसक्ति या राग भाव के कारण उत्पन्न होने वाली अनेक समस्याओं का समाधान हो सकता है क्योंकि इनका मुख्य हेतु मोहादि कषायों का दमन करना है। आहार शुद्धि एवं व्यवस्था के कारण कई शारीरिक रोगों का शमन किया जा सकता है। ज्येष्ठ कल्प आदि के माध्यम से बड़ों के प्रति अनादर, असम्मान आदि की समस्या का निवारण हो सकता है। दस सामाचारी सामाचारी का शाब्दिक अर्थ है - सम्यक् आचरण करना अथवा शिष्ट पुरुषों द्वारा आचरित क्रियाकलाप सामाचारी कहलाता है । सामाचारी के निम्न अर्थ भी ग्राह्य हैं- 1. मुनि संघ का व्यवहारात्मक आचार 2. मुनि के लिए विशेष रूप से पालनीय नियम 3. आगमोक्त-अहोरात्र-क्रियाकलापसूचिका 4. साधु जीवन के आचार-व्यवहार की सम्यक् व्यवस्था।' जैनागमों में सामाचारी के दो रूप पाये जाते हैं- 1. ओघ सामाचारी और 2. पदविभाग सामाचारी। ओघनियुक्ति में वर्णित प्रतिलेखन, प्रमार्जनादि रूप क्रियाकलाप करना ओघ सामाचारी है। निशीथ, जीतकल्प आदि में वर्णित सामाचारी का पालन करना पदविभाग सामाचारी है। ओघ सामाचारी दस प्रकार की बतायी गयी है और उन्हें संयम धर्म के प्रति हरपल सजग रहने के उद्देश्य से दैनिक नियमों के रूप में अनिवार्य माना गया है। दस सामाचारी का सामान्य
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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