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________________ अध्याय-2 जैन मुनि के सामान्य नियम जैन परम्परा में मनि धर्म के नियमों एवं उपनियमों का वर्गीकरण कई दृष्टियों से किया जा सकता है। कुछ नियम उस कोटि के हैं जो अनिवार्य रूप से परिपालनीय हैं, कुछ उस स्तर के हैं जो उत्सर्ग और अपवाद के रूप में आचरणीय होते हैं, कुछ मर्यादाएं इतनी महत्वपूर्ण हैं कि उनमें दोष लगने पर श्रमण स्वीकृत धर्म से च्युत हो जाता है तथा कुछ नियम उस श्रेणी के हैं जिनका भंग होने से मुनि धर्म तो खण्डित नहीं होता, किन्तु वह दूषित हो जाता है। मुख्य रूप से सभी नियमों को तीन उपविभागों में बाँटा जा सकता है-1. आचार विषयक, 2. आहारचर्या विषयक और 3. दैनिकचर्या विषयक। इस अध्याय में आचार सम्बन्धी विधि नियमों का उल्लेख किया जा रहा है। दस कल्प जैन आचार-दर्शन में श्रमण के लिए दस कल्पों का विधान है। कल्प का सामान्य अर्थ है आचार-विचार के नियम। ___ कल्प के अन्य अर्थ भी हैं जैसे नीति, आचार, मर्यादा, विधि, सामाचारी आदि। आचार्य उमास्वाति के अनुसार जो कार्य ज्ञान, शील, तप का उपग्रह करता है और दोषों का निग्रह करता है वह कल्प है, शेष अकल्प हैं। कल्पसूत्र की टीका के अनुसार श्रमणों का आचार कल्प है। यहाँ कल्प के तीन समानान्तर शब्द हैं 1. कल्प 2. कल्पस्थित 3. कल्पस्थिति। सामान्य आचार नियम या साध्वाचार का विधि-निषेध कल्प कहलाता है। जो मुनि परिहारविशुद्धि चारित्र की साधना के समय गुरु का दायित्व निभाता है, वह कल्पस्थित कहा जाता है। मुनि की आचार मर्यादा एवं साध सामाचारी में अवस्थान कल्पस्थिति कहलाती है। कल्पस्थिति का तात्पर्य प्रथम, अन्तिम और
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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