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________________ श्रमण का स्वरूप एवं उसके विविध पक्ष... 55 हालांकि वर्तमान स्थितियों में बहुत परिवर्तन आ चुका है जो गीतार्थों के लिए विचारणीय है। इस ऋतुकाल में फफूंद के भय से प्रत्येक प्रहर में पात्र का प्रमार्जन करें। आरोग्य एवं संयम के लिए छह विगय का पूर्णतः त्याग करें। ग्लानादि मुनि उपचार आदि कारणों से विगय का सेवन कर सकते हैं किन्तु स्वस्थ होने पर यथाशक्ति नियम का पालन करें। वर्षा ऋतु में मुनि काष्ठ के आसन पर बैठें और उसी आसन पर शयन करें। यह नियम सूक्ष्म प्राणियों की रक्षा के लिए बनाया गया है। पका हुआ अन्न दीर्घ समय का हो तो उसे ग्रहण न करें। शय्यातर के घर से आहार- पानी एवं औषधि न लें। उपाश्रय में पूर्व से परिगृहीत पात्र और पट्टादि का त्याग न करें और न ही दूसरे नये पात्र, पट्टादि को ग्रहण करें। जिस दिशा में पानी आदि मिलने की संभावना न हो, उस ओर अत्यन्त आवश्यक कार्य हो तो सवा योजन या पाँच कोस तक ही गमन करें। निर्जल स्थान पर दिन या रात्रि में नहीं रुकें । अचित्त जल और कांजिक जल का ही ग्रहण करें। पाणिपात्र मुनि थोड़ी-बहुत वर्षा होने पर जब तक वर्षा बन्द न हो, तब तक भिक्षार्थ न जाएं। पात्रधारी मुनि थोड़ी बहुत वर्षा होने पर कंबली ओढ़कर भिक्षा के लिए जा सकते हैं। भिक्षा के लिए उपाश्रय से निकले हुए थोड़ी देर ही हुई हो और अचानक मूसलाधार वर्षा शुरू हो जाए तो कोई उत्तम स्थान देखकर रूप जाएं तथा वर्षा कम होने पर सीधे गंतव्य स्थान पर आ जाएं। वर्षाकाल में कुछ मुनि तप करने की इच्छा रखते हैं, कुछ कायोत्सर्ग में तो कुछ योगोद्वहन में संलग्न होते हैं। साधुजन उपर्युक्त सभी क्रियाएँ गुरु के आदेश से ही करें। कोई भी साधु अन्य साधुओं को बताकर ही स्थंडिल आदि के लिए बहिर्गमन करें। भाद्रपद में आठ दिन पर्युषण पर्व की आराधना करें। हालांकि आठ दिन की परम्परा परवर्ती है। आचारदिनकर के अनुसार पर्युषण को छोड़कर अन्य पर्वोत्सव, अध्ययन एवं तपस्या मलमास में प्रारम्भ न करें परन्तु जो प्रारम्भ है, उसे यथावत कर सकते हैं। इसी तरह विवाह, दीक्षा, व्रतारोपण, किसी कार्य का प्रारम्भ, उद्यापन एवं पितृदेवता आदि से सम्बन्धित अन्य कार्य भी मलमास में न करें। लौकिक शास्त्रों में भी कहा गया है कि अग्निहोत्र, प्रतिष्ठा, यज्ञ, दान, प्रतिग्रह, वृषोत्सर्ग, चूड़ाकरण, यज्ञोपवीत धारण करना आदि मांगलिक कार्य मलमास में
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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