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________________ 44... जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन बारह प्रतिमाधारी साधक मुनि निस्पृहता, वीतरागता और अनासक्ति के स्वरूप का दर्शन करवाता है इससे समाज में जैन धर्म की गरिमा बढ़ती है । इन्द्रिय निग्रही मुनि इन्द्रिय लोलुपी लोगों को सन्मार्ग दिखा सकता है। प्रतिलेखना करने वाला मुनि समाज में जागरूकता का सन्देश देते हैं। तीन गुप्ति के परिपालन के द्वारा समाज में एकाग्रता एवं निष्ठा का सन्देश प्रसारित होता है। यदि प्रबन्धन के परिप्रेक्ष्य में करण सत्तरी का मूल्यांकन किया जाए तो चार प्रकार की पिण्डविशुद्धि के माध्यम से मुनि मनुष्य जीवन की दैनिक आवश्यकताओं जैसे- आहार, वस्त्र, शयन और पात्र इन चारों की आसक्ति एवं लोभ वृत्ति पर नियन्त्रण रखा जा सकता है। पंच समिति के माध्यम से प्रत्येक कार्य में अपनी शक्ति को सीमित एवं उसका सदुपयोग करते हुए आत्मिकवीर्य एवं समय का नियोजन करता है। इसी के साथ प्रत्येक कार्य में विवेक एवं कर्त्तव्यबुद्धि रखने के कारण समाज पर अनावश्यक भार रूप नहीं बनता । बारह भावना के चिन्तन से वस्तु स्वरूप का सही ज्ञान कर उसकी आसक्ति में अन्धा नहीं बनता तथा सांसारिक परिस्थितियों में भी वह अपने आपको नियन्त्रित कर लेता है। बारह प्रकार की प्रतिमा साधना के द्वारा प्रतिकूल परिस्थितियों में रहने की कला का विकास होता है। इसी के साथ स्वनियन्त्रण और भय विमुक्ति होती है । इन्द्रिय निग्रह के द्वारा इन्द्रिय प्रबन्धन एवं नियन्त्रण साध हुए प्रत्येक कार्य में सफलता अर्जित की जा सकती है। प्रतिलेखना के द्वारा दृष्टि सम्यक एवं तीक्ष्ण बनती है जिससे किसी भी वस्तु का लेन-देन करने या खरीदने में समय का अपव्यय नहीं होता। गुप्ति त्रय की साधना के द्वारा सम्पूर्ण नियन्त्रण एवं एकाग्रता में वृद्धि करते हुए अनेक दुष्कर कार्य भी साधे जा सकते हैं तथा मानसिक कषायों पर नियन्त्रण किया जा सकता है। चार अभिग्रहों के द्वारा किसी भी प्रकार के द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि में साधक स्वयं को अनुकूल बना लेता है । इस प्रकार मुख्य रूप से करण सत्तरी के द्वारा इस जीवन का नियन्त्रण एवं प्रबन्धन किया जा सकता है। यदि आधुनिक समस्याओं के सन्दर्भ में करण सत्तरी के नियमों की उपादेयता को देखा जाए तो निम्न तथ्य प्रकट होते हैं चार प्रकार की पिण्ड विशुद्धि के द्वारा अति आहार, अल्पाहार, विषाक्त या अशुद्ध भोजन के कारण होने वाली बीमारियों पर नियन्त्रण प्राप्त किया जा
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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