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________________ नन्दिरचना विधि का मौलिक अनुसंधान... 35 भवनपतिदेव, तिर्यग्लोकवासी व्यन्तरदेव, तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय प्राणी, मनुष्य और ज्योतिष्कदेव तथा ऊर्ध्वलोकवासी वैमानिक देव ऐसे तीनों लोक के जीव उपस्थित रहते हैं।13 . तीर्थङ्कर परमात्मा के उत्कृष्ट पुण्योदय के परिणामस्वरूप समवशरण रचा जाता है सामान्यकेवली के लिए यह रचना नहीं होती। . तीर्थङ्कर प्रभु मालकोश राग में देशना देते हैं, किन्तु उनकी वाणी के अतिशय से तिर्यञ्च आदि सभी प्राणी अपनी-अपनी भाषा में सब कुछ समझ जाते हैं। • समवसरण में अरिहन्तदेव के प्रभाव से आतंक, रोग, मरण, वैर, काम-बाधा एवं क्षुधा-तृषा की पीड़ाएँ कभी भी नहीं होती। . यहाँ जातिगत वैरभाव रखने वाले जीव जैसे- सर्प, नकुल, चूहा, बिल्ली आदि शत्रुपन को भूल जाते हैं और एक साथ बैठते हैं। . समवशरण के चारों ओर की योजन पर्यन्त भूमि में मारी-महामारी नहीं फैलती है। • अतिवृष्टि- अनावृष्टि का प्रकोप भी नहीं होता है। . देवदुन्दुभियाँ निरन्तर बजती रहती हैं। . वहाँ किसी प्रकार की न रोक-टोक होती है न विकथा वार्ता ही।14 . योजनों विस्तार वाले इस समवसरण में प्रवेश और निकलने में बाल-वृद्ध सभी को अन्तर्मुहूर्त से अधिक समय नहीं लगता है। समवसरण के कृत्य- तीर्थङ्कर प्रभु दिन की प्रथम पौरुषी में अथवा अन्तिम पौरुषी में पूर्व दिशा के द्वार से समवसरण में प्रवेश करते हैं। उस समय देव निर्मित सहस्रपत्र से युक्त पद्मयुग्म पर पादन्यास करते हैं। उसके पीछे सात अन्य कमल होते हैं, जो क्रमश: भगवान के आगे आते जाते हैं।15 आवश्यकनियुक्ति के अनुसार तीर्थङ्कर प्रभु समवसरण में विराजमान होने से पूर्व या देशना देने से पूर्व 'नमो तित्थस्स' ऐसा पद बोलकर चतुर्विध संघ को प्रणाम करते हैं, उसके बाद मालकोश राग में प्रवचन करते हैं। उनकी वाणी योजनव्यापी होती है और उससे समवसरणस्थ सभी संज्ञी प्राणियों की जिज्ञासाएँ शान्त हो जाती है।16 यहाँ खासकर उल्लेखनीय यह है कि तीर्थङ्कर प्रभु का उपदेश सुनकर कोई न कोई जीव निश्चित रूप से सम्यक्त्व आदि सामायिक व्रत अंगीकार करते हैं। किस गति के जीव कितनी, कौनसी सामायिक ग्रहण कर सकते हैं? इस सम्बन्ध में कहा गया है कि मनुष्य सम्यक्त्व, श्रुत, देशविरति और सर्वविरति ये चारों प्रकार की सामायिक तथा तिर्यञ्च प्रथम की तीन या दो प्रकार की सामायिक स्वीकार करते हैं।17 यदि तीर्थङ्कर की प्रथम देशना में सामायिक ग्रहण करने
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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