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________________ नन्दिरचना विधि का मौलिक अनुसंधान... 33 उद्यानों में इन्हीं नामों वाला एक-एक चैत्य वृक्ष भी होता है। यह वृक्ष तीन कटनी वाले एक वेदी पर प्रतिष्ठापित रहता है। उसके चारों ओर चार दरवाजों वाले तीन परकोटे होते हैं। उसके निकट मंगल द्रव्य रखे होते हैं, ध्वजाएँ फहराती रहती हैं तथा वृक्ष के शीर्ष पर मोतियों की माला से युक्त तीन छत्र होते हैं। इस वृक्ष के मूल भाग में अष्ट प्रातिहार्य युक्त अर्हन्त भगवान् की चार प्रतिमाएँ विराजमान रहती हैं। इसे उपवन-भूमि कहते हैं। इस भूमि में रहने वाले वापिकाओं में स्नान करने मात्र से जीवों को एक भव दिखाई पड़ता है तथा वापिकाओं के जल में देखने से सात भव दिखाई पड़ते हैं। उसके आगे पुनः एक वेदिका होती है। वेदिका के आगे ध्वज-भूमि होती है। ध्वज-भूमि में माला, वस्त्र, मयूर, कमल, हंस, गरुड़, सिंह, बैल, हाथी और चक्र से चिह्नित दश प्रकार की निर्मल ध्वजाएँ होती हैं। इनके ध्वजदण्ड स्वर्णमय होते हैं। ध्वजभूमि के कुछ आगे बढ़ने पर एक स्वर्णमय कोट आता है। इस परकोटे के चारों ओर पहले के समान चार दरवाजे होते हैं, नाटक शालाएँ होती हैं तथा धूप घटों से सुगन्धित धुआँ निकलता रहता है। इसके द्वार पर नागेन्द्र द्वारपाल के रूप में खड़े रहते हैं। उसके आगे कल्पभूमि होती है। कल्पभूमि में कल्पवृक्षों का वन रहता है। इन वनों में कल्पनातीत शोभा वाले दश प्रकार के कल्पवृक्ष होते हैं, जो कि नाना प्रकार की लता-बल्लियों एवं वापिकाओं से वेष्टित रहते हैं। यहाँ देव विद्याधर और मनुष्य क्रीड़ारत रहते हैं। कल्पभूमि के पूर्वादिक चारों दिशाओं में क्रमश: नमेरु, मन्दार, सन्तानक और पारिजात नामक चार सिद्धार्थ वृक्ष होते हैं। सिद्धार्थ वृक्षों की शोभा चैत्य वृक्षों के सदृश होती है, किन्तु इनमें अर्हन्त की जगह सिद्ध प्रतिमाएँ होती हैं। . कल्पभूमि के आगे पुन: एक स्वर्णमय वेदी बनी रहती है। इस वेदी के द्वार पर भवनवासी देव द्वारपाल के रूप में खड़े रहते हैं। इस वेदी के आगे भवनभूमि होती है। भवनभूमि में एक से एक सुन्दर कलात्मक और आकर्षक बहुमंजिले भवनों की पंक्ति रहती है। देवों द्वारा निर्मित इन भवनों में सुर-मिथुन गीत, संगीत, नृत्य, जिनाभिषेक, जिनस्तवन आदि करते हुए सुखपूर्वक रहते हैं। भवनों की पंक्तियों के मध्य वीथियाँ-गलियाँ बनी होती हैं। वीथियों के दोनों पार्श्व में नव-नव स्तूप (कुल 72) बने होते हैं। पद्मराग मणिमय इन स्तूपों में
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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