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________________ 32... जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता इन द्वारों के भीतर प्रविष्ट होने पर कुछ आगे की ओर चारों दिशाओं में चार मानस्तम्भ होते हैं। प्रत्येक मानस्तम्भ चारों ओर चार दरवाजों वाले तीनतीन परकोटों से परिवेष्टित रहता है। मानस्तम्भों का निर्माण तीन पीठिकायुक्त समुन्नत वेदी पर होता है। वह घण्टा, ध्वजा और चामर आदि से सुशोभित अत्यधिक कलात्मक होता है। मानस्तम्भों के मूल और ऊपरी भाग में अष्ट महाप्रातिहार्यों से युक्त अर्हन्त भगवान की स्वर्णमय प्रतिमाएँ विराजमान रहती हैं। इन्द्रगण क्षीरसागर के जल से इनका अभिषेक किया करते हैं। मानस्तम्भों के निकट चारों ओर चार-चार वापिकाएँ बनी होती हैं। एक-एक वापिका के प्रति बयालीस-बयालीस कुण्ड होते हैं। सभी जन इन कुण्डों के जल से पैर धोकर ही अन्दर प्रवेश करते हैं। मानस्तम्भों को देखने मात्र से दुरभिमानी जनों का मान गलित हो जाता है। इसलिए 'मानस्तम्भ' यह इसकी सार्थक संज्ञा है । उसके बाद चैत्यप्रासाद-भूमि आती है । वहाँ पर एक चैत्य प्रासाद होता है, जो कि वापिका, कूप, सरोवर और वन- खण्डों से मण्डित पाँच-पाँच प्रासादों से युक्त होता है। चैत्यप्रसाद भूमि के आगे रजतमय वेदी बनी रहती है। वह धुलीसाल कोट की तरह आगे गोपुर द्वारों से मण्डित रहती है। ज्योतिषी देव द्वारों पर द्वारपाल का काम करते हैं । उस वेदी के भीतर की ओर कुछ आगे जाने पर कमलों से व्याप्त अत्यन्त गहरी परिखा होती है, जो कि वीथियों/सड़कों को छोड़कर समवसरण को चारों ओर से घेरे रहती है। परिखा के दोनों तटों पर लतामण्डप बने होते हैं। लतामण्डपों के मध्य चन्द्रकान्तमणिमय शिलाएँ होती हैं, जिन पर देव - इन्द्र गण विश्राम करते हैं। इसे खातिका - भूमि कहते हैं । खातिका भूमि के आगे रजतमय एक वेदी होती है। वह वेदी पूर्ववत गोपुर द्वारों आदि से युक्त होती है। उस द्वितीय वेदी से कुछ आगे बढ़ने पर लताभूमि आती है, जिसमें पुन्नाग, तिलक, वकुल, माधवी इत्यादि नाना प्रकार की लताएँ सुशोभित होती हैं। लताभूमि में लता - मण्डप बने होते है, जिसमें सुर- मिथुन क्रीड़ारत रहते हैं। ताभूमि से कुछ आगे बढ़ने पर एक स्वर्णमय कोट रहता है। यह कोट भी धुलिसाल कोट की तरह गोपुर, द्वारों, मंगल द्रव्यों, नवनिधियों और धूपघटों आदि से सुशोभित रहता है। उसके कुछ आगे जाने पर पूर्वादिक चारों दिशाओं में क्रमश: अशोक, सप्तपर्ण, चम्पक और आम्र नामक चार उद्यान होते हैं। इन
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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