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________________ 16 ... जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता हे भगवन्! मैं सामायिक व्रत को ग्रहण करता हूँ तथा पापकारी सावद्य क्रियाओं का निश्चित अवधि के लिए दो करण एवं तीन योग से त्याग करता हूँ, अर्थात मन, वचन एवं शरीर से सावध क्रियाएं न करूँगा, न करवाऊँगा। हे भगवन्! पूर्वकृत पापकारी प्रवृत्तियों से मैं निवृत्त होता हूँ, उनकी निन्दा करता हूँ, गर्हा करता हूँ एवं उसके प्रति रही हुई आसक्ति का त्याग करता हूँ। प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह एवं रात्रिभोजन का निश्चित अवधि के लिए सम्पूर्णत: त्याग करता हूँ। मन, वचन, काया से हिंसादि पांच प्रकार का पाप कार्य न करूँगा, न करवाऊँगा । हे भगवन् ! अतीतकृत हिंसादि पापकारी प्रवृत्तियों से मैं निवृत्त होता हूँ, उनकी निन्दा करता हूँ, गर्हा करता हूँ एवं उसके प्रति रहे हुए ममत्वभाव का त्याग करता हूँ। अनुज्ञा - उसके पश्चात दीक्षाग्राही खमासमण पूर्वक वन्दन करके कहें - "भयवं इच्छाकारेण तुम्भे अम्हं पंचमहव्वय अवहिपालणं अणुन्नवेह" हे भगवन् ! आपकी इच्छा से आप मुझे एक अवधि के लिए पंचमहाव्रत पालन करने की आज्ञा दें। गुरु कहे - 'अणुन्नवेमि' मैं आज्ञा देता हूँ। तदनन्तर दीक्षाग्राही शिष्य उद्देश, समुद्देश एवं अनुज्ञा हेतु छह-छह बार खमासमणसूत्र पूर्वक वन्दन करके, पूर्ववत प्रवेदन विधि करें तथा कायोत्सर्ग आदि भी पूर्व की भाँति तीन-तीन बार करें। अनुशिक्षण तत्पश्चात गुरु एवं उपस्थित संघ हाथों में अभिमन्त्रित वासचूर्ण को ग्रहण कर नवीन क्षुल्लक को परम्परागत सामाचारी से अवगत करवाते हुए कहें - हे विरतिधर ! तुमने तीन वर्ष तक ब्रह्मचर्यव्रत का पालन किया है, अब तुम क्षुल्लकत्व को प्राप्त करो । नियत अवधि पूर्ण होने तक पंचमहाव्रतों का पालन करना । शिखा एवं सूत्र को धारण कर सदैव मुनि के समान विचरण करना। मुनियों द्वारा ग्रहण करने योग्य शुद्ध एवं निर्दोष आहार का ग्रहण करना। (वर्तमान की श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में यह नियम छोटी दीक्षा प्राप्त साधकों के लिए है ) चाहो तो गृहस्थ के घर निर्दोष भोजन करना । भोजन में सचित्त वस्तु का स्पर्श भी मत करना । दोनों समय आवश्यक (प्रतिक्रमण) क्रिया करना । सदाकाल स्वाध्याय में संलग्न रहना । क्षुल्लक का वेश ब्रह्मचारी के समान होता है अत: तुम मुनि के समान ही ब्रह्मगुप्तियों का पालन करना। तुम नवदीक्षित साधु-साध्वियों को प्रणाम करना, किन्तु उनसे वन्दन मत करवाना। आगम ग्रन्थों को छोड़कर धर्मशास्त्र का अध्ययन करना । -
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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