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________________ ... जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता वेश्या आदि के संयोगिक स्थान पर नहीं रहना, परित्यक्त कामभोगों का स्मरण नहीं करना, स्त्रियों या पुरुषों के अंगोपांग रागपूर्वक नहीं देखना, शरीर की विभूषा नहीं करना, विवाह आदि के उद्देश्य से निर्मित भोजन का सेवन नहीं करना, स्त्रियों से रागभावपूर्वक बातचीत नहीं करना, किसी अन्य का उपहास या निन्दा जैसी प्रवृत्तियों से सदैव दूर रहना, सदाकाल स्वाध्याय में निरत रहना, अल्प बोलना, तीन वर्ष तक त्रिकाल परमात्मा की पूजा करना, उभय सन्ध्याओं में आवश्यक क्रिया करना आदि । • उपदेश देने के पश्चात पुनः गुरु भगवन्त व्रतधारी के मस्तक पर वासचूर्ण का निक्षेपण करें। • व्रतधारी लंगोटी एवं उत्तरीय वस्त्र धारण करते हुए गुरोपदेश के अनुसार तीन वर्ष पर्यन्त इस व्रत का अनुपालन करें। तुलनात्मक विवेचन यदि पूर्वोक्त विधि का ऐतिहासिक या तुलनात्मक दृष्टिकोण से अध्ययन करें तो ज्ञात होता है कि श्वेताम्बर - साहित्य में यह विधि आचारदिनकर में उल्लिखित है। सामान्यतया ब्रह्मचर्यव्रत सार्वकालिक होने से इस व्रतग्रहण की परम्परा जिनशासन में दीर्घकाल से प्रवर्त्तमान रही है । इतिहास के पृष्ठों पर इस व्रत को स्वीकार करने के अनेकों उदाहरण अंकित हैं। स्थानांगसूत्र' और समवायांगसूत्र' में ब्रह्मचर्य की सुरक्षा हेतु नौ गुप्तियों का उल्लेख किया गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में ब्रह्मचर्य के संरक्षणार्थ दस समाधिस्थान बताये गये हैं। दस समाधिस्थान और नौ गुप्तियों के नामों में लगभग समानता है । तुलना की दृष्टि से दस समाधिस्थान निम्न हैं — 1. ब्रह्मचारी स्त्री- पशु- नपुंसक से युक्त शयन और आसन का सेवन न करे। 2. स्त्रीकथा न करे । 3. स्त्रियों के साथ एक आसन पर न बैठे। 4. स्त्रियों के मनोहर अंगों को रागभाव पूर्वक न देखे। 5. दीवार आदि की ओट में स्त्रियों के कामोत्पादक शब्द न सुने । 6. पूर्वावस्थाकृत कामभोगों का स्मरण न करे।
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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