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________________ 252...जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता " योगवहन की अपेक्षा - जैन धर्म की श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में उपस्थापना करने से पूर्व नवदीक्षित शिष्य के लिए आवश्यकसूत्र एवं दशवैकालिकसूत्र के प्रारम्भ के चार अध्ययनों का योग (तपोनुष्ठानपूर्वक सूत्राध्ययन) करना अनिवार्य माना गया है। सामुदायिक मण्डली में प्रवेश करने हेतु सात आयंबिल भी आवश्यक कहे गये हैं। __ जहाँ तक आवश्यकसूत्रादि के अध्ययन का सवाल है वहाँ यह वर्णन सर्वप्रथम विधिमार्गप्रपा में दृष्टिगत होता है। तदनन्तर यह चर्चा आचारदिनकर में प्राप्त होती है। पूर्ववर्ती ग्रन्थों में कहीं भी, इन सूत्रों का योग उपस्थापना हेतु किया जाना चाहिए, ऐसा उल्लेख नहीं है। इस सम्बन्ध में इतना जरूर पढ़ने को मिलता है कि प्राचीनकाल में आचारांगसूत्र का शस्त्रपरिज्ञा नामक प्रथम अध्ययन पढ़ाया जाता था। दशवैकालिकसूत्र की रचना होने के अनन्तर इसके चार अध्ययनों को विधिपूर्वक पढ़ने-पढ़ाने की परम्परा प्रचलित हुई जो आज भी अस्तित्व में है। जहाँ तक मंडली योग का प्रश्न है वहाँ पंचवस्तुक, तिलकाचार्य सामाचारी, सुबोधासामाचारी, आचारदिनकर आदि में उपस्थापना करने के बाद मण्डली तप करने का निर्देश है। इन ग्रन्थों में सात मण्डली की गाथा भी दी गयी है। इससे सिद्ध है कि मण्डली तप की अवधारणा विक्रम की 8वीं शती से पूर्व अस्तित्व में आ चुकी थी। आज कुछ परम्पराओं में आवश्यकसूत्र एवं मण्डली के सात आयंबिल करवाकर उपस्थापना कर देते हैं। यदि इन योगतप के मध्य शुभदिन आ रहा हो, तो अच्छे मुहूर्त में उपस्थापना भी कर देते हैं। फिर शेष योग उसी क्रम में पूर्ण करवाते हैं। कुछ परम्पराओं में एक महीने के योग (तप) करवाने के पश्चात उपस्थापना करते हैं। इसमें दशवैकालिकसूत्र के योग में पन्द्रह दिन, आवश्यकसूत्र के योग में सात दिन एवं मंडली के योग में सात दिन इस प्रकार कुल तीस दिन लगते हैं। . स्थानकवासी, तेरापंथी एवं दिगम्बर इन सम्प्रदायों में मंडली या सूत्रादि योग की परम्परा नहीं है। यदि दिगम्बर परम्परा से तुलना की जाए तो अवगत होता है कि श्वेताम्बर परम्परा में इस क्रिया का अधिकारी आचार्य, उपाध्याय आदि पदवीधर मनि या बीस वर्ष की संयमपर्याय वाला मुनि माना गया है। दिगम्बर-परम्परा
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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