SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 280
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 218...जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता रात्रि में भोजन करने से अनेक सूक्ष्म प्राणियों की हिंसा होती है, क्योंकि मनुष्य उन सूक्ष्म जीवों को देख नहीं पाता, जिनकी संख्या में अंधेरा होते ही अप्रत्याशित वृद्धि हो जाती है। इसके अलावा कुछ छोटे-छोटे जीव ऐसे होते हैं, जो रोशनी देखकर स्वत: आ जाते हैं और चिराग आदि की लौ पर जलकर मर जाते हैं अर्थात रात्रि में भोजन करना हिंसा को बढ़ावा देना है। जहाँ तक आगमिक व्याख्याओं का प्रश्न है वहाँ दशवैकालिक अगस्त्यसिंहचूर्णि में रात्रिभोजन त्याग को मूलगुणों की रक्षा का हेतु बताया गया है।140 जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यक भाष्य में इसे मूलगुण एवं उत्तरगुण द्विविध रूपों में स्वीकार किया है। रात्रिभोजन त्याग से अहिंसा महाव्रत का संरक्षण होता है अत: वह समिति की भाँति उत्तरगण है किन्तु श्रमण के लिए वह अहिंसा महाव्रत की तरह पालनीय है इस दृष्टि से वह मूलगुण की कोटि में भी माना गया है।141 इस तरह हम पाते हैं कि रात्रिभोजन त्याग जैन मुनियों का औत्सर्गिक व्रत है। किसी भी परिस्थिति में इस व्रत का खंडन नहीं किया जा सकता। रात्रिभोजन करने से अहिंसादि महाव्रतों का सम्यक्तया परिपालन भी नहीं हो सकता है। प्राचीन एवं अर्वाचीन ग्रन्थों की दृष्टि से वर्तमान जीवन शैली में रात्रिभोजन सभ्यता का प्रतीक बन गया है। यहाँ तक कि धार्मिक आयोजन भी इससे अछूते नहीं रह गए हैं। विडम्बना यह है कि जो रात्रिभोजन नहीं करता, उसे बैकवर्ड (पिछड़ा) माना जाता है। जहाँ 'अहिंसा परमो धर्मः' के उच्च संस्कार दिये जाते हैं ऐसे आराधना भवन, जैन भवन, आयंबिल भवन आदि स्थानों पर भी रात्रिभोजन का प्रचलन बढ़ गया है। जबकि जैन परम्परा में रात्रिभोजन किसी भी रूप में मान्य नहीं है। जैनाचार्यों ने कठोरता से इस बात का निषेध किया है। योगशास्त्र के तीसरे अध्याय में रात्रिभोजन त्याग पर बल देते हुए कहा गया है कि रात के समय निरंकुश संचार करने वाले प्रेत-पिशाच आदि अन्न जूठा कर देते हैं, इसलिये सूर्यास्त के पश्चात भोजन नहीं करना चाहिये। रात्रि में घोर अंधकार होने से अवरुद्ध शक्तिवाले नेत्रों से भोजन में गिरते हुए जीव दिखाई नहीं देते हैं, अत: रात के समय भोजन नहीं करना चाहिये। 142 आचार्य हेमचन्द्रसूरि ने रात्रिभोजन करने से होने वाले दोषों का वर्णन
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy