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________________ उपस्थापना (पंचमहाव्रत आरोपण) विधि का रहस्यमयी अन्वेषण... 217 आगम एवं आगमिक व्याख्या ग्रन्थों की दृष्टि से । ___ सर्वज्ञ अरिहंत परमात्मा अपनी त्रिकालवर्ती दृष्टि से सब कुछ जानते हैं, उन्हें वैज्ञानिकों की भाँति माइक्रोस्कोप, टेलीस्कोप या प्रयोगशालाओं की आवश्यकता नहीं होती। उन्होंने रात्रिभोजन को महापाप बताते हुए सर्वथा त्याज्य बताया है। वैज्ञानिक खोजों का तो रोज खंडन-मंडन होता रहता है, क्योंकि विज्ञान विकासशील है पर सर्वज्ञ-दृष्टि सम्पूर्णतया विकसित है। वह जो कुछ कहती है सर्वथा और सर्वदा के लिए सत्य होता है। ___ जैन धर्म में श्रमण के लिए रात्रिभोजन सर्वथा त्याज्य बतलाया गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में श्रमण जीवन के कठोर आचार का निरूपण करते हुए स्पष्ट कहा है कि जैन मुनि को पाँच महाव्रतों की भाँति इस छठे व्रत का पालन दृढ़ता पूर्वक करना चाहिए।135 क्योंकि यह व्रत उत्सर्ग रूप है। महाव्रतों के अपवाद प्राप्त होते हैं परन्तु रात्रिभोजन विरमण व्रत का कोई अपवाद नहीं है। रात्रिभोजन विरमण-व्रत महाव्रतों की सुरक्षा के लिए है इसीलिए महाव्रतों को मूलगुण और रात्रिभोजन विरमण को उत्तरगुण माना है। मूलगुण और उत्तरगुण के भेद को स्पष्ट करने के लिए ही प्राणातिपात विरमण आदि को महाव्रत और रात्रिभोजन विरमण को व्रत कहा गया है। यह इस व्रत की प्राथमिक उपादेयता है। दशवैकालिकसत्र के तीसरे अध्ययन में 52 अनाचीर्णों में पाँचवां अनाचीर्ण रात्रिभोजन से सम्बन्धित है अर्थात रात्रिभोजन को अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार न कहकर अनाचार कहा है।138 प्रस्तुत सूत्र के चौथे अध्ययन में रात्रिभोजनविरमण को छठा व्रत भी कहा है तथा प्राणातिपात-विरमण आदि पाँचों विरमणों को महाव्रत कहा है।137 दशवैकालिक के छठे अध्ययन में श्रमण जीवन के अठारह गुणों का उत्कीर्तन करते हुए रात्रिभोजन त्याग को महाव्रत के साथ सम्मिलित कर “वयछक्कं” छ: व्रतों का उल्लेख किया है। उसमें पाँचों महाव्रतों के समान ही छठे रात्रिभोजन त्याग को भी महत्त्व दिया गया है।138 आठवें अध्ययन की 28वीं गाथा में तो साधु-साध्वी के लिए सूर्यास्त से सूर्योदय तक आहारादि पदार्थों के सेवन की मन से भी इच्छा नहीं करने का निर्देश दिया गया है, क्योंकि रात्रिभोजन विरमण व्रत के भंग से अहिंसा महाव्रत दूषित हो जाता है। एक महाव्रत के दूषित होने पर अन्य महाव्रतों के दूषित होने की भी संभावना रहती है।139
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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