SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 269
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपस्थापना (पंचमहाव्रत आरोपण) विधि का रहस्यमयी अन्वेषण... 207 इन्द्रियों के विषय निरोध से सम्बन्धित कही गयी हैं। मुख्यतया पाँच इन्द्रियों के विषय का संवर करना अपरिग्रह महाव्रत है। उत्तराध्ययनसूत्र में इन्द्रिय और मन के विषयों से विरक्त होने को विनिवर्तना कहा है। इसमें निर्देश है कि जो जीव विनिवर्तना करता है वह नूतन पाप कर्मों का बन्धन नहीं करने के लिए तत्पर रहता है और पूर्व - अर्जित पाप कर्मों का क्षय कर देता है। उसके पश्चात चार गति रूप संसार अटवी को पार कर जाता है। अपरिग्रह महाव्रत की उपादेयता यह बहुविदित सत्य है कि इस विश्व में पदार्थ ससीम हैं और इच्छाएँ व आकांक्षाएं आकाश के समान असीम हैं। जिस प्रकार विराट् सागर में प्रतिपल - प्रतिक्षण जल-तरंगे उठती रहती है, यदि उन जल - तरंगों की गणना करना चाहे तो सम्भव नहीं है, चूंकि तरंग उत्पत्ति का क्रम अनवरत चलता रहता है एक जल-तरंग विलीन होती है तो दूसरी जल- तरंग उबुद्ध हो जाती है। इसी तरह मानव-मन की इच्छाओं को मापना भी असम्भव है, क्योंकि मानव के अन्तर्मानस में प्रतिक्षण नित नये विचार उठते रहते हैं, वह यही सोचता रहता है कि यह प्राप्त कर लूं, यह भोग लूं, यह देख लूं, यह जुटा लूं, यह जमा करके रख दूं .। एक इच्छा की पूर्ति होने पर दूसरी इच्छा तुरन्त जन्म ले लेती है। एक पदार्थ की उपलब्धि होने पर अन्य - अन्य पदार्थों को प्राप्त करने की तैयारी में निरन्तर जुटा रहता है । इच्छा पूर्ति एवं पदार्थ प्राप्ति के अनवरत पुरुषार्थ से मानसिक एवं चैतसिक शान्ति भी नष्ट हो जाती है। जबकि व्यक्ति का यह सारा प्रयत्न शान्ति की उपलब्धि हेतु किया जाता है। इससे सिद्ध होता है कि पदार्थ या परिग्रह सुख के मूलभूत कारण नहीं हैं बल्कि दुःखजनक ही हैं। दूसरे तथ्य के अनुसार पदार्थ के संग्रह में, पदार्थ की उपलब्धि में या पदार्थ के भोग में सुख मानना, अज्ञानी व्यक्ति की पहचान है। क्योंकि जड़ वस्तुएँ सुख प्रदान करने में असमर्थ होती हैं । उसमें सुख - बुद्धि मानना, यह हमारी कल्पना है, वास्तविकता नहीं। तीसरा हेतु समझने जैसा यह है कि अकेला व्यक्ति दुनियाँ की सम्पूर्ण वस्तुओं का उपभोग एक जन्म में एक साथ कर ही नहीं सकता, चूंकि वैयक्तिक आवश्यकताएँ सीमित हैं। फिर भी परिग्रह वृत्ति का त्याग न करना बहुत बड़ी कमजोरी है।
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy