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________________ केशलोच विधि की आगमिक अवधारणा... 145 इस प्रकार केशलोच के तीन प्रकार भिन्न-भिन्न पात्रों की अपेक्षा निर्दिष्ट हैं। अत: जो जिस मार्ग का अधिकारी हो उसे उस मार्ग का अनुगमन करना चाहिए। यद्यपि केशलुंचन सर्वोत्कृष्ट एवं बहुनिर्जरा का कारण है। केशलुंचन की काल मर्यादा केशलोच के इन तीन प्रकारों में कौन-सा लोच, कितने समय की अवधि के पश्चात किया जाना चाहिए ? जैन शास्त्रों में इस विषयक भिन्न-भिन्न अवधि निर्धारित की गयी है। स्थानांग-व्यवहार आदि सूत्रों में तीन प्रकार के स्थविर निरूपित हैं1. वयस्थविर - सत्तर वर्ष की पर्याय वाला श्रमण वयस्थविर कहलाता है। 2. ज्ञानस्थविर - अनेक आगम ग्रन्थों का ज्ञाता ज्ञानस्थविर कहलाता है। 3. प्रव्रज्यास्थविर – बीस वर्ष की दीक्षा पर्याय वाला श्रमण प्रव्रज्या स्थविर कहलाता है। कल्पसूत्र के अनुसार इन तीन प्रकार के स्थविर मुनियों के अतिरिक्त अन्य मुनियों को छह-छह मास के अन्तर से केशलूंचन कर लेना चाहिए। यह परम्परा लगभग आज भी मौजूद है। उक्त तीन प्रकार के स्थविरों में से जो एक भी प्रकार का स्थविर हो तो उसे एक-एक वर्ष के अन्तर से केशलुंचन करना चाहिए। यदि अपवादमार्ग का सेवन कर रहे हों तो 1. उस्तरे के द्वारा एक-एक मास के बाद मण्डन करना चाहिए। क्योंकि इस विधि में केशराशि जल्दी बढ़ जाती है। केश- शरीर शोभा का एक प्रकार है जो मुनि के लिए सर्वथा त्याज्य है। 2. कैंची के द्वारा पन्द्रह-पन्द्रह दिन के अन्तर से केशलुंचन करते रहना चाहिए। उस्तरे की अपेक्षा कैंची से काटे गये केश और जल्दी बढ़ जाते हैं अत: इस मुण्डन की काल मर्यादा पन्द्रह दिन की बतायी गयी है। ___ दिगम्बर परम्परानुसार प्रत्येक दो माह के पश्चात केशलोच करना उत्कृष्ट है। तीन-तीन माह के पश्चात केशलोच करना मध्यम है और चार-चार माह के बाद केशलुंचन करना जघन्य है। इस प्रकार दिगम्बर परम्परा में भी काल की अपेक्षा से केशलुंचन के तीन प्रकार माने गये हैं। इस परम्परा में केशलोच का ही विधान है, क्षुरमुण्डन या कर्तरीमुण्डन को किसी भी स्थिति में मान्य नहीं
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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