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________________ 138...जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता परम्परागत आचार्यों द्वारा निर्मित मालूम होती है। यदि तुलनापरक दृष्टि से मनन किया जाए तो पूर्वोक्त ग्रन्थों में मण्डली के प्रकारों एवं नामों को लेकर कहीं भी असमानता नहीं है केवल मूल गाथा पाठ में किञ्चिद् शाब्दिक भिन्नता देखी जाती है, अर्थ की दृष्टि से कोई अन्तर नहीं है। यह पाठ भेद भी प्रवचनसारोद्धार, तिलकाचार्य सामाचारी10 एवं सुबोधा सामाचारी11 में है शेष ग्रन्थों में यह विवरण सुबोधासामाचारी के अनुसार दिया गया है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि भले ही मण्डली तप विधि विक्रम की 5वीं शती और आठवीं शती के मध्य अस्तित्व में आयी हों किन्तु अत्यधिक महत्त्वपूर्ण होने से श्वेताम्बर मूर्तिपूजक आम्नाय में यह आज भी प्रचलित है। उपसंहार मण्डली तप यह श्रमण संघ में प्रविष्टि का सिंह द्वार है। मुनि धर्म की चर्याओं का प्राथमिक उपक्रम है। यह एक ऐसा द्वार है, जिसमें प्रवेश करने वाला साधक चारित्रधर्म की अनुपालना कठोरता के साथ करने हेतु प्रयत्नशील बन जाता है। वस्तुत: जिस साधक के भीतर चारित्रिक क्रियाओं के प्रति गहरी रुचि हो, आन्तरिक उत्साह हो, वही नूतन दीक्षित मुनि इस तपाराधना के लिए तत्पर बनता है, क्योंकि एकाकी साधना जघन्योत्कृष्ट दोनों प्रकार की हो सकती है वहाँ अन्य मुनि साथी क्या कहेंगे ? क्या सोचेंगे? यह भय नहीं रहता है जबकि सामूहिक साधना में यह स्थिति निरन्तर बनी रहती है, इसलिए बहुश: अनचाहे भी संयम धर्म की निर्दोष परिपालना हो जाती है। इसी के साथ कमजोर साधक भी कठोर एवं शुद्धचर्या पालन के अभ्यासी हो जाते हैं। यह इस तप की उपादेयता कही जा सकती है। सामान्यतया यह तप नवदीक्षित शैक्ष को बलात या हठात नहीं, अपितु उसकी पूर्ण स्वीकृति पूर्वक श्रमण मण्डल में सम्मिलित करने हेतु करवाया जाता है। इस तपोनुष्ठान के माध्यम से शैक्ष को यह संकेत दिया जाता है कि श्रमण मण्डली के साथ आराधनारत रहते हुए तुम्हें अहंकार-आग्रह आदि दूषणों का त्याग करना होगा, विनय-नम्रता-सरलता आदि गुणों को विकसित करना होगा और गुरु की अनुशासन मर्यादा को स्वीकार करना होगा, तभी मण्डली प्रवेश की सार्थकता है और इसी में चारित्र धर्म की मूल्यवत्ता है।
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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