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________________ प्रव्रज्या विधि की शास्त्रीय विचारणा... 101 या अर्हत हन्ता तो नहीं है? तब इन दोषों से रहित व्यक्ति को ही दीक्षा दी जाती है। तत्पश्चात उसे संन्यास जीवन की दैनिक एवं कठिन चर्याओं से परिचित करवाया जाता है, जैसे भूमि पर घास बिछाकर शयन करना, श्वान की भांति अल्प भोजन करना, श्मशान में रहना, वन्य पशुओं के भयावह गर्जन को सुनना, मांस आदि का वर्जन करना आदि। इससे वह इच्छा सामर्थ्य को तदनुरूप विकसित कर सकता है। यहाँ जैन परम्परा की भांति ममक्ष की स्वीकृति के साथ-साथ माता-पिता की अनुमति भी अनिवार्य मानी गयी है। यदि वह विवाहित हो तो पत्नी के स्वीकृति की भी आवश्यकता होती है।84 बौद्ध संघ में प्रवेश करने के इच्छुक व्यक्ति का सर्वप्रथम शिर, दाढ़ी और मूंछ का मुण्डन किया जाता है। वहाँ इस क्रिया को केशकर्म, जटाकर्म, चूड़ाकरण एवं मुण्डन आदि नामों से अभिहित किया गया है। तत्पश्चात कषाय वस्त्र धारण करवाए जाते हैं। फिर वह भिक्षओं के चरणों में वन्दन कर तथा करबद्ध मुद्रा में उकड़ बैठकर शरणत्रयी के उच्चारणपूर्वक बुद्ध, संघ व धर्म की शरण स्वीकार करता है। शरणत्रयी का पाठ तीन बार बुलवाया जाता है85 - 1. बुद्धं शरणं गच्छामि, 2. संघं शरणं गच्छामि, 3. धम्मं शरणं गच्छामि। इसके अनन्तर पंचशील की शिक्षा दी जाती है, किन्तु विनयपिटक के अनुसार दस शिक्षापद के परिपालन की प्रतिज्ञा करवाई जाती है।86 दस शिक्षापदों के नाम ये हैं - 1. जीव हिंसा नहीं करना। 2. चोरी नहीं करना। 3. मैथुन सेवन नहीं करना। 4. असत्य नहीं बोलना। 5. मद्यपान नहीं करना। 6. मध्याह्नकाल में भोजन करना। 7. नृत्य, गीत, वाद्य से दूर रहना। 8. माला, गन्ध एवं उबटन धारण नहीं करना। 9. मूल्यवान शय्या का उपयोग नहीं करना। 10. स्वर्ण-चांदी आदि ग्रहण नहीं करना। .. प्राचीनकाल में प्रव्रज्यादान के पूर्व मुनि जीवन की कठिन चर्याओं से परिचित करवाया जाता था। इस परम्परा में प्रव्रजित को श्रामणेर या श्रामणेरी कहा जाता है। दीक्षित साधक उपसम्पदा प्राप्त न होने तक किसी योग्य भिक्षु के निश्रा में दीक्षित साधक रहते हैं, ऐसा सैद्धान्तिक नियम है।87 दीक्षा संस्कार की क्रिया पूर्ण होने के बाद विद्यार्थी गुरु को प्रणाम कर उनके उपदेश एवं आदेश को स्वीकार करता है। वैदिक-परम्परा में भी दीक्षाव्रत की व्यवस्था है। वहाँ सामान्यतया चातुर्वर्ण
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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