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________________ प्रव्रज्या विधि की शास्त्रीय विचारणा... 75 बालक इतना नहीं समझ सकता है कि अच्छा क्या है और बुरा क्या है ? तो यह प्रश्न आधुनिक बुद्धिजीवियों को ही पूछना चाहिए। जब अढ़ाई वर्ष के बालक को उसके अपने कन्धों पर मजदूरी के जैसे बैग डाल नर्सरी स्कूल में भेजते हो तब यह विचार करते हो कि यह शिक्षा पद्धति बालक के लिए लाभदायी है या हानिप्रद? दुनियाँ के सभी शिक्षणशास्त्री कहते हैं ढ़ाई वर्ष के बालक को स्कूल मत भेजिये। तदुपरान्त माता-पिता रोते-चिल्लाते बालक को जबर्दस्ती भेजते हैं उस बात का कोई क्यों नहीं विरोध करते ? इसी तरह तीन वर्ष के बालक को टी.वी. और फिल्म के सामने बिठाने वाले माता-पिता विचार नहीं करते कि उसके लिए हिंसाजन्य, रागजन्य, संघर्षजन्य दृश्य कितने हानिकारक हैं? यहाँ पुनः इतना स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि बालक को दीक्षा जीवन की विशद जानकारी न भी हों, किन्तु माँ-बाप को इस बात का ख्याल रहता है कि दीक्षित जीवन सन्तान के लिए श्रेयस्कारी है। यदि इस समझपूर्वक मातापिता प्रिय सन्तान को आत्मकल्याण के मार्ग पर आरूढ़ करते हों तो अन्यों को विरोध करने का न कोई कारण दिखाई देता है और न ही किसी तरह का हक बनता है। आठ वर्ष के बालक को साधु-सामाचारी का सम्यक् बोध कैसे सम्भव है? इसके जवाब में कह सकते हैं कि जैन धर्म और समस्त आर्यधर्म मात्र इस जन्म को ही नहीं मानते हैं, पूर्वजन्म और पुनर्जन्म भी स्वीकार करते हैं। यदि आठ वर्ष के बालक को बाह्य निमित्त से भी वैराग्य के भाव अंकुरित होते हैं तो वह इस बात का सूचन करता है कि यह बालक पूर्वजन्म में महान् योगी आत्मा थी, उस संस्कार के बिना बालक को संयममार्ग की इच्छा हो ही नहीं सकती। जैनाचार्य भी हर किसी बालक को जब कभी दीक्षा नहीं देते। आचार्यादि बालक के संस्कार, आचार-विचार, विनय, विवेकादि का परीक्षण- निरीक्षण करने के पश्चात ही दीक्षा देने का निर्णय लेते हैं। कुछ लोग यह प्रश्न उठाते हैं कि बाल्यावस्था में दीक्षित होने से कौतुक, कामग्रह आदि दोष सम्भव है जबकि यौवनावस्था को सम्प्राप्त, भुक्त भोगियों के लिए उक्त दोष सम्भव नहीं है, अत: दीक्षा के लिए यौवनवय अधिक उचित है। 1444 ग्रन्थों के प्रणेता आचार्य हरिभद्रसूरि इसका सटीक उत्तर देते हुए कहते हैं कि कर्म के क्षयोपशम भाव से उत्पन्न होने वाले चारित्र परिणाम के साथ
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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