SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रव्रज्या विधि की शास्त्रीय विचारणा... 73 पुनः संसार में जाने की बात तो ऐसे बहुत कम होता है कि बाल दीक्षित मुनि पुनः गृहस्थ बने हों, किसी के साथ कर्म संयोगवश ऐसा हो भी जाए तो इसके कारण बाल दीक्षा को गलत नहीं कह सकते। आज व्यापार में रोज गड़बड़ घोटालों की दर बढ़ती जा रही है तो क्या हमने व्यापार करना छोड़ दिया या फिर कदाचित Operation में Doctor द्वारा रोगी की मृत्यु हो जाए तो हमने डॉक्टरों के पास जाना छोड़ दिया है, नहीं न! तो फिर सिर्फ धार्मिक क्षेत्र में हमारी मानसिकता संकुचित क्यों हो जाती है ? कुछैक बालदीक्षा का विरोध करते हुए यह तर्क देते हैं कि दीक्षा जीवन में बालक को दुःख दिया जाता है। गोचरी, केशलुंचन, विहार, अस्नान, श्वेत वस्त्र धारण, खेलना-कूदना नहीं इत्यादि नियमों को दुःख रूप बताते हैं । किन्तु जिस आत्मा को जो रुचिकर होता है वह उसके लिए कष्टदायी नहीं होता । धार्मिक क्रियाकलाप- तपस्या- परीषह आदि द्वारा होने वाले कष्ट स्वेच्छापूर्वक सहन किये जाते हैं इसलिए वे दुःखप्रद नहीं है। जैसे वैदिक धर्म में उपनयन संस्कार करते हुए बालक के कान - नाक बींधे जाते हैं वे कष्ट रूप नहीं गिने जाते वैसे ही दीक्षा स्वीकार जैन धर्म की प्रस्थापित क्रिया है। दीक्षार्थी स्वयं समझपूर्वक यह जीवन अंगीकृत करता है। आहारचर्या करना भीख मांगना नहीं है। भीख में विकृति है, तिरस्कार है जबकि भिक्षा संस्कृति है, भिक्षा में सम्मानपूर्वक दिया जाता है। याचक दया मांगता है भिक्षु दया प्रदान करता है, धर्मलाभ कहता है। मुनि की भिक्षाचर्या में किसी तरह की दीनता नहीं होती । गहराई से विचार करे तो जैन दीक्षा में अल्पवयी बालक गोचरचर्या हेतु जाते ही नहीं है वरिष्ठ साधु ही आहार-पानी की गवेषणा करते हैं। जहाँ तक बालक या बालिका दीक्षा का प्रश्न है वहाँ हर एक के लिए इस तरह का प्रसंग नहीं बनता है। उन बालक-बालिकाओं को ही दीक्षानुमति या दीक्षा प्रदान की जाती है जो दो बातों के लिए तत्पर हो 1. माता-पिता एवं स्वजन के बिना रह सकता हो । 2. गुर्वाज्ञा पालन में तत्पर हो। इन दो परीक्षा में सफल होने वाले बालक को ही लघुवय में दीक्षा दी जाती है। बालक की परीक्षा लेने का प्रयोजन यह है कि उसका समग्र संसार मातापिता में समाविष्ट होता है। युवक का समग्र संसार पत्नी में निहित होता है। वृद्ध
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy