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________________ 316... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक .... • आचारदिनकर में उपधान की निम्न व्याख्याएँ की गई हैं। जैसे कि आगम पढ़ने का अधिकार प्राप्त करने के लिए आवश्यक तप रूप अनुष्ठान करना उपधान है,12 अथवा जिसके द्वारा ज्ञानादि का अध्ययन किया जाता है, सम्यक् प्रकार से ज्ञानादि का परीक्षण किया जाता है वह उपधान है अथवा चार प्रकार की संवर समाधिरूप सुखदायी शय्या(पलंग) पर उत्तम भावों के तकिए को आधार बनाकर मस्तक को आराम देना उपधान है।13 इसमें यह भी कहा गया है कि जैन साधुओं के लिए श्रुतसामायिक का आरोपण योगोद्वहन विधि द्वारा किया जाता है और गृहस्थों के लिए श्रुतसामायिक का आरोपण उपधान वहन द्वारा होता है।14 • आचारप्रदीप में उपधान का स्वरूप बतलाते हुए कहा गया है कि श्रुत आराधना के लिए निश्चित किया गया विशिष्ट तप उपधान है।15 इसका व्युत्पत्तिपरक अर्थ करते हुए कहा है कि उप-समीप में रहकर, धीयते-धारण किया जाता है अर्थात् जिस तप द्वारा सूत्रादिक पढ़ने की क्रिया की जाती है, वह उपधान है। . उपदेशप्रासाद में कहा गया है कि श्रावक को उपधान तप करके आवश्यकसूत्र पढ़ना चाहिए और साधु को योगवहन करके आगमसूत्रों का अध्ययन करना चाहिए।16 उपर्युक्त व्याख्याओं से उपधान संबंधी कुछ तथ्य इस प्रकार निःसृत होते हैं • उपधान एक तप प्रधान क्रिया है। • यह तप अनुष्ठान सूत्रों के अध्ययन हेत किया जाता है। • इस तप साधना द्वारा चैत्यवंदन आदि सूत्र पाठों को आत्मस्थ किया जाता है। • जैन परम्परागत आवश्यक सूत्र पाठों के अध्ययन की विशिष्ट प्रणाली है। • यह तपोनुष्ठान पूर्वक किए जाने वाले स्वाध्याय का एक प्रकार है, जिसकी गणना आभ्यंतर तप में की गई है। जैन दर्शन में स्वाध्याय पाँच प्रकार का माना गया है1. वाचना 2. पृच्छना 3. परावर्तना 4. अनुप्रेक्षा और 5. धर्मकथा। इनमें
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
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