SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 381
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपधान तपवहन विधि का सर्वाङ्गीण अध्ययन ...315 • निशीथचूर्णि में उपधान का स्वरूप बताते हुए यह निर्दिष्ट किया है कि जो दुर्गति में गिरती हुई आत्मा को धारण करके रखता है, वह उपधान है। • उत्तराध्ययनटीका में विशिष्ट तप को उपधान कहा गया है। इसी के साथ अंग, उपांग आदि आगम शास्त्रों का अध्ययन एवं उनकी आराधना के लिए आयंबिल, उपवास, नीवि, आदि तप विशेष को भी उपधान कहा है। इसकी मूल व्याख्या इस प्रकार है___ "अंगानां सिद्धांतानां पठनाऽऽराधनार्थमाचाम्लोपवास निर्विकृत्यादिलक्षणे तपोविशेषे।" __उपर्युक्त उद्धरणों से सुस्पष्ट है कि आगम शास्त्रों को पढ़ने के लिए एवं शास्त्रों की आराधना करने के लिए आयंबिल आदि तप करना अनिवार्य है। __यहाँ यह तथ्य जानने योग्य है कि आगम शास्त्रों को पढ़ने का अधिकार साधु-साध्वियों को ही है। इस कारण यह तप भी उनके लिए ही विहित है अत: आगमशास्त्र पढ़ने के निमित्त उनके द्वारा जो आयंबिल आदि तप किए जाते हैं, उन्हें उपधान कह सकते हैं। सामान्यत: आगम अध्ययन हेतु साधु-साध्वी द्वारा किए जाने वाले तपविशेष को 'योगवहन' की संज्ञा दी गई है, वह भी उपधानरूप होता है। उक्त व्याख्या से यह बात और स्पष्ट हो जाती है कि जैन साधु-साध्वियों को आगम पढ़ने का अधिकार प्राप्त करने हेतु उपधानतप (योग) करना अत्यन्त आवश्यक है। जो साधु-साध्वी शास्त्र पढ़ने में असमर्थ हैं, उनमें भी शास्त्र पढ़ने की क्षमता जागृत हो सके, इस आशय से आगमों की आराधना अवश्य करवाई जानी चाहिए, क्योंकि आराधना द्वारा ही आराधक के भाव स्थिर बनते हैं। • गच्छाचार प्रकीर्णक और धर्मसंग्रह के अनुसार विनय-बहुमान की चतुर्भगी द्वारा आत्म भावों की पुष्टि करने वाला कर्म उपधान है।10 • प्रवचनसारोद्धार की टीका के अनुसार-"उप-समीपेधीयते- क्रियते सूत्रादिकं येन तपसा तदुपधानम्' जिस तप द्वारा सूत्रादि को आत्मा के निकट किया जाता है, वह उपधान है। इसका तात्पर्य यह है कि आवश्यक आदि आगम सूत्रों को आत्मसात् करने के लिए जिस तप का आश्रय लिया जाता है, वह उपधान है।11
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy