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________________ जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक...xiii चार शिक्षाव्रतों की साधना करता है। पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत मिलकर श्रावक के बारहव्रत कहे जाते हैं। साध्वी श्री सौम्यगुणा श्रीजी ने प्रस्तुत कृति के तीसरे अध्याय में बारह व्रतों की आरोपण विधि का उल्लेख किया है। चौथे अध्याय में षाण्मासिक सामायिक व्रत आरोपण विधि का निरूपण किया गया है। पाँचवें अध्याय में पौषध व्रत ग्रहण विधि का उल्लेख स्वतन्त्र रूप से किया गया है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि बारह व्रतों की अवधारणा जैन धर्म की श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में सामान्य रूप से पाई जाती है, फिर भी क्रम की अपेक्षा विभिन्न ग्रन्थों में कुछ अन्तर देखा जाता है। प्रथम अंतर तो यह है कि जहाँ श्वेताम्बर परम्परा में शिक्षाव्रतों में क्रमशः सामायिक, देशावकासिक, पौषध और अतिथिसंविभाग का उल्लेख है वहाँ दिगम्बर परम्परा में कुन्दकुन्द आदि कुछ आचार्यों के ग्रन्थों में सामायिक, पौषध, अतिथिसंविभाग और संलेखना का उल्लेख मिलता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि दिगम्बर परम्परा में देशावकासिक और पौषध व्रत को एक में सम्मिलित कर दिया गया है तथा उस रिक्त स्थान की पूर्ति संलेखना व्रत को जोड़कर की गई है, किन्तु यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि सभी दिगम्बर आचार्य इसका अनुसरण नहीं करते हैं। कुछ दिगम्बर आचार्यों ने तत्त्वार्थसूत्र के आधार पर श्रावक व्रतों की विवेचना की है। उसमें देशावकासिक व्रत का स्पष्ट उल्लेख है। फिर भी क्रम आदि को लेकर विभिन्न ग्रन्थों में थोड़ा-बहुत अन्तर मिल जाता है। सामान्य रूप से बारह व्रतों की व्यवस्था सभी को स्वीकार्य रही है। इस व्रत व्यवस्था में सामायिक, पौषध आदि का विशेष महत्त्व इसलिए है कि इनमें साधक की जीवनचर्या मुनिवत हो जाती है। यही कारण है कि इन पर स्वतन्त्र रूप से भी विपुल साहित्य की रचना हुई है। साध्वी सौम्यगुणा श्रीजी द्वारा इन दोनों का स्वतन्त्र अध्याय में विवेचन इसी दृष्टिकोण को लक्ष्य में रखकर किया गया है । जहाँ पाँच अणुव्रतों और तीन गुणव्रतों का धारण जीवन पर्यंत के लिए होता है वहाँ सामायिक और पौषध का धारण समय-समय पर किया जाता है और तत्संबंधी विधि-विधान भी उसी के अनुसार करने होते हैं अतः इनका स्वतन्त्र अध्यायों में विवेचन उचित ही है। सामायिक और पौषध के ग्रहण और पारण की विधियों में भी परस्पर कुछ
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
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