SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ xii... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक अवलोकन करें तो इस विषयक चर्चा आगम साहित्य में उपासकदशा और दशाश्रुतस्कन्ध में मिलती है। उसके पश्चात आचार्य हरिभद्रसूरि ने अष्टक, षोड़शक, विंशिका, पंचाशक आदि ग्रन्थों में भी गृहस्थ के धार्मिक जीवन से संबंधित चर्या एवं सम्यक्त्व व्रत आदि का उल्लेख किया है। इसी प्रकार तत्त्वार्थसूत्र, उसके स्वोपज्ञ भाष्य एवं उसकी श्वेताम्बर - दिगम्बर टीकाओं में भी गृहस्थ धर्म के बारह व्रतों तथा ग्यारह प्रतिमाओं के उल्लेख प्राप्त होते हैं। देव पूजा, गुरू उपासना आदि के उल्लेख भी आचार्य हरिभद्रसूरि के ग्रन्थों में विस्तार से उपलब्ध होते हैं। दिगम्बर परम्परा में गृहस्थ के साधना मार्ग का उल्लेख कुछ पुराणों एवं चरित्त काव्यों में मिलता है। पं. आशाधरजी ने तो इस विषय पर सागार धर्मामृत नामक स्वतन्त्र ग्रन्थ भी लिखा है, किन्तु इसके पूर्व आचार्य कुन्दुकुन्द के नियमसार, प्रवचनसार आदि ग्रन्थों में गृहस्थ धर्म के व्रतों आदि के कुछ उल्लेख मिल जाते हैं। इसके अतिरिक्त गृहस्थ धर्म से संबंधित बारह व्रतों एवं संलेखना आदि के उल्लेख हेमचन्द्राचार्य के योगशास्त्र में भी पाए जाते हैं। अभयदेवसूरि चरित उपासकदशा की टीका में भी इनका विस्तृत उल्लेख मिलता है, किन्तु व्रतारोपण आदि से संबंधित विधि-विधानों का उल्लेख हमें आचार दिनकर आदि ग्रन्थों में ही प्राप्त होता है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि जहाँ जैन परम्परा में गृहस्थ उपासक के लिए श्रावक शब्द का उल्लेख मिलता है वहाँ बौद्ध धर्म में श्रावक शब्द का उल्लेख भिक्षु और गृहस्थ उपासक दोनों के लिए हुआ है। प्रस्तुत कृति में साध्वी सौम्यगुणा श्रीजी ने सर्वप्रथम जैन गृहस्थ की धर्माराधना विधि और उसके प्रकारों का उल्लेख किया है। उसके पश्चात् सम्यक्त्व आरोपण विधि का विवेचन किया गया है। सम्यक्त्व की प्राप्ति जैन साधना का आधार है। इसे सम्यक्दर्शन भी कहा जाता है। मुनि जीवन की साधना हो या गृहस्थ जीवन की सम्यक्त्व की प्राप्ति उसका प्रथम चरण है। जैन धर्म के त्रिविध साधना मार्ग में सम्यक्दर्शन और सम्यक्ज्ञान की साधना गृहस्थ और मुनि दोनों के लिए विहित है। गृहस्थ और मुनि जीवन की साधना में जो भी अंतर है वह सम्यक्चारित्र को लेकर है । जहाँ मुनि जीवन में पंच महाव्रतों का आरोपण किया जाता है वहाँ गृहस्थ साधक पाँच अणुव्रत, तीन गुणवत और
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy