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________________ आराध्य की आकृति/रुप को लाये बिना कुछ सोच सकना उतना ही असंभव है, जितना की श्वास लिए बिना जीवित रहना। परमात्मा की मूर्तिपूजा कोई पापाचार नहीं है वरन् यह तो अविकसित मन के लिए उच्च आध्यात्मिक भाव को ग्रहण करने का माध्यम है, उपाय है। परमात्मा की मूर्ति के माध्यम से सरलता से ब्रह्म भाव का अनुभव हो सकता है तो क्या उसे पाप कहना ठीक होगा ? और जब वह उस अवस्था से परे पहुँच गया है तब भी उसके लिए मूर्तिपूजा को भ्रमात्मक कहना उचित नहीं है। अपनी-अपनी मान्यतानुसार सभी प्रत्यक्ष या परोक्ष रुप से प्रतीकोपासना करते हैं। मुसलमान धर्म के अनुयायी भी नमाज के वक्त अपने आपको काबा की मस्जिद में खड़ा अनुभव करते हैं। मस्जिद का एक विशेष आकार, प्रकार या रुप भी ता प्रतीक ही है उनके शुद्ध धार्मिक स्थल का। ईसाइयों का गिरजाघर भी पवित्र स्थान का प्रतीक है। ईसाइयों के प्रोटेस्टेंट समुदाय में क्रॉस के चिन्ह को वही स्थान प्राप्त है जो ईसाइयों के कैथोलिक समुदाय में धार्मिक मूर्तियों को है। गुरुद्वारा सिक्ख सम्प्रदाय के धार्मिक स्थान का प्रतीक है, उसमें उनका ग्रंथ भी पूजन-वंदन के लिए प्रतीकस्वरूप ही है। मूर्ति जड़ है इसलिए हमें ज्ञान नहीं मिलता, यह कथन उचित नहीं बल्कि, भ्रामक दुष्प्रचार मात्र है। पाषाण प्रतिमा भले ही जड़ हो, लेकिन उसकी वैराग्य व वीतराग मुद्रा चेतन है। दर्शन भी मूर्ति का नहीं, मुद्रा का करते है। मूर्ति/प्रतिमा की मुद्रा के दर्शन कर हम मार्गदर्शन पाते है। प्रतिमा मार्गदर्शन नहीं देती, हमें स्वयं उससे मार्गदर्शन लेना होता है दिशा बोधक पत्थर की तरह। हम नित्य दिशा बोधक पत्थर को देखते है जो मौन खड़ा रहता हैं, कुछ नहीं कहता, प्रतिक्रिया रहित। पर हम अपनी दृष्टि से उसे पढ़ लेते है और दिशा निश्चित कर अपने ध्येय की ओर अग्रसर हो जाते है। बस, ऐसा ही कुछ संकेत हम परमात्मा की प्रतिमा में भी पाते है। अगर हमारे पास ,
SR No.006232
Book TitleDravya Puja Evam Bhav Puja Ka Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2016
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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