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________________ १४२ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन भुवि वृथा सुकृतं च कृतं भवेदविजनस्य तरामविवेकतः । अनयनस्य वटीवलनं पुनः कवलितं च शकृत्करिणा ततः ॥ २५/६८॥ नीति के उपदेश को प्रभावी एवं ग्राह्य बनाने के लिए भी कवि ने लोकोक्तियों का प्रयोग किया है। मुनिराज जयकुमार को समझाते हुए कहते हैं -- मनुष्य जहाँ रहता है, वहाँ के राजा को प्रसन्न रखना चाहिए, उसका विरोध करना शल्य के समान दुःखदायक होता है । "समुद्र में रहकर मगर से वैर करना हितकर नहीं होता" . पार्थिवं समनुकूलयेत्पुमान् यस्य राज्यविषये नियुक्तिमान् । शल्यवद्रुजति यद्विरोधिता नाम्बुधौ मकरतोऽरिता हिता ॥ २/७० तिर्यञ्चादि के व्यवहार पर आश्रित लोकोक्तियों के द्वारा वस्तु स्थिति की गम्भीरता, संकटास्पदता, बिडम्बनात्मकता आदि का द्योतन कर कथन को हृदयस्पर्शिता प्रदान की गई अर्ककीर्ति के युद्ध में पराजित हो जाने पर राजा अकम्पन भयभीत होकर कहते हैं -- इस पराजय से यदि सम्राट् भरत कुपित हो गये तो हमारा क्या होगा ? “समुद्र में रहकर मगर से वैर करने वाले की गति तो प्रसिद्ध ही है" -- रविपराजयतः स रुषः स्थलं यदि तदा भुवि नः क्व कलादलम् । मकरतोऽवरतस्य सरस्वति भवितुमर्हति नासुमतो गतिः ॥ ९/६१ सूक्तियाँ जयोदय की भाषा सूक्तिगर्भित है । इससे भी उसकी काव्यात्मकता सम्पुष्ट हुई है। वस्तुस्वभाव या जीवन और जगत् से सम्बन्धित सत्य का कथन वाली उक्ति सूक्ति कहलाती है । लोकोक्तियाँ भी जीवन और जगत् के सत्य का कथन करती हैं, किन्तु लोकोक्ति और सूक्ति में यह अन्तर है कि लोकोक्ति लोकमुख से आविर्भूत होती है तथा सूक्ति ज्ञानियों के मख से निकलती हैं और ज्ञानियों के वचन तथा लेखन में उसका प्रयोग होता है । इसके. अतिरिक्त लोकोक्तियों में लाक्षणिकता एवं व्यंजकता भी रहती है जबकि सूक्तियाँ प्रायः अभिधात्मक होती हैं । “अधजल गगरी छलकत जाय" यह एक लोकोक्ति है । "पर उपदेश कुशल बहुतेरे" यह सूक्ति है । “निरस्तपादपे देशे एरण्डोऽपि द्रुमायते'' यह एक लोकोक्ति है, “विद्या विनयेन शोभते" यह सूक्ति है । ऐसा भी होता है कि कोई सूक्ति बहुप्रसिद्ध होकर लोकजिह्वा का संस्पर्श पाकर लोकोक्ति का रूप धारण कर लेती है और लोकोक्तियाँ अपनी
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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