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________________ 2. जो अध्यात्मवाद के नाम पर वर्तमान साधुओं को आहारदान, वैय्यावृत्ति, विनयादि न करके उनका सम्मान नहीं करते हैं जो यह कहते हैं कि वर्तमान में आचार्य कुन्दकुन्द की मूल-आम्नायानुसार मुनि होते ही नहीं है उन लोगों के द्वारा प्रचारित सन्मार्ग का खण्डन कर अथवा रोक कर सन्मार्ग का प्रचार - प्रसार करना । 3. वर्तमान में कुछ साधुओं में व्याप्त शिथिलाचार को रोकने तथा समाप्त करने का प्रयास करना । 4. जो संस्थाएं विद्वान् आगमविरुद्ध विशेषार्थ लिखकर शास्त्रों के भाव को बदलने की कोशिश कर रहे है, चारो अनुयोगों में से द्रव्यानुरोग को विशेष मानकर अनुयोगों को अप्रयोजनीय बतलाते हैं, उनकी उपेक्षा करते हैं, प्रकाशन एवं स्वाध्याय में प्रमुखता नहीं देते, उनके दुष्प्रचार को रोककर चारों अनुयोगो के शास्त्रों का मूल रुप में प्रकाशन, प्रचार-प्रसार एवं स्वाध्याय की प्रेरणा देना । 5. मूल आगम परम्परा अनुसार विद्वानों को प्रशिक्षित करना, उनको स्थान स्थान पर भेजकर दिगम्बर जैन धर्म का प्रचार - प्रसार करना, शिविरादि लगाकर लोगो को धर्म व संस्कारों को सिखाना । अप्रकाशित या आवश्यक ग्रन्थों का अनुवाद या प्रकाशन करना, पूजा प्रतिष्ठा विधानादि करना या कराना, स्थान-स्थान पर धर्मप्रसार के लिए श्रमण संस्कृति पाठशालाएं खोलना। 6. समाज को सप्त व्यसनों से मुक्त कराकर श्रावकों को उनके चार/पट आवश्यको को करने की प्रेरणा देना, सिखाना, समाज में व्याप्त रात्रि भोजन, मृत्यु भोज एवं दहेज आदि कुरीतियों का निवारण करना । 7. संस्थान में प्रशिक्षण के लिए प्रविष्ट छात्रों के आवास, भोजन, पठन| पाठन की निःशुल्क या उचित शुल्क पर व्यवस्था करना व कराना । 8. आवश्यकतानुसार विभिन्न स्थानों पर अपने निर्देशन में पाठशाला, छात्रावास, । विद्यालय आदि खोलना एवं सुचारु रुप से संचालित करना । 19. विभिन्न अवसरों पर विभिन्न विषयों पर विद्वानों की गोष्ठी सम्मेलन वाचनादि | का आयोजन करना । .
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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