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________________ १०२ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन निदर्शना कार्य के औचित्य - अनौचित्य के स्तर की प्रतीति कराने में यह अलंकार अत्यन्त सहायक है | महाकवि ने इसी प्रयोजन से काव्य में निदर्शना का प्रयोग किया है । यथा - .. जयमुपैति सुभीरुमतल्लिकाऽखिलजनीजनमस्तकमल्लिका । - बहुषु भूपवरेषु महीपते मणिरहो चरणे प्रतिबद्ध्यते ॥९/७७ - हे राजन् ! अनेक बड़े बड़े राजाओं के होने पर भी समस्त स्त्री समाज की शिरोमणि, श्रेष्ठतम तरुणी सुलोचना जयकुमार को प्राप्त हो गई है । मणि को पैरों में बाँध दिया गया है। ___ यहाँ “मणिः चरणे प्रतिबद्ध्यते" यह निदर्शना श्रेष्ठतम तरुणी के जयकुमार को प्राप्त हो जाने के अनौचित्य का स्तर स्पष्ट कर देती है। इसी प्रकार - नीतिमीतिमनयो नयनयं दुर्मतिः समुपकर्षति स्वयम् । उल्मुकं शिशुवदात्मनोऽशुभं योऽह्नि वाञ्छति हि वस्तुतस्तु भम् ॥ ७/७९ । _ - दुर्मति अर्ककीर्ति नीति का उल्लंघन कर रहा है । यह जली लकड़ी को पकड़ने वाले बालक के समान स्वयं का अकल्याण करना चाहता है । दिन में नक्षत्रों को देखना चाहता है। यहाँ “अह्नि वाञ्छति हि वस्तुतस्तु भम्" इस उक्ति के द्वारा अर्ककीर्ति की इच्छा के अनौचित्य का स्वरूप सम्यग्रूपेण हृदयंगम हो जाता है । अर्थान्तरन्यास कवि ने पात्रों के विचारों को बल प्रदान करने, मानवीय आचरण का औचित्य सिद्ध करने, वस्तु के स्वरूप का प्रतिपादन तथा जीवन की सफलता के लिए आवश्यक निर्देश देने हेतु इस अलंकार का प्रयोग किया है । निम्न उक्तियों में अर्थान्तरन्यास के द्वारा विभिन्न नैतिक आधारों पर विभिन्न पुरुषों के आचरण का औचित्य प्रतिपादित किया गया है - _ माथवंशिन इवेन्दुवंशिनः ये कुतोऽपि परपक्षशंसिनः । तैरपीह परवाहिनी धुता कृच्छ्काल उदिता हि बन्धुता ॥ ७/९१॥ - जो नाथवंशी और सोमवंशी मनुष्य अर्ककीर्ति की सेना में थे, वे उसकी सेना छोड़कर जयकुमार की सेना में सम्मिलित हो गये । आपत्ति के समय जो साथ देती है वही बन्धुता है।
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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