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________________ लता-वृक्ष आदि का सहारा लेकर उतरना आदि। इसी प्रसंग में हिंसा-अहिंसा-विवेक के संबंध में अल्प-बहुत्व का विचार सामने आया। जब हिंसा अपरिहार्य ही बन गई हो, तो बहु-हिंसा की अपेक्षा अल्प हिंसा को चुनना ही उचित माना गया। सूत्रकृतांग के आर्द्रक नामक अध्याय में हस्ति तापसों की चर्चा है। ये हस्तितापस यह मानते थे कि आहार के लिए अनेक वानस्पतिक-एकेन्द्रिय-जीवों की हिंसा करने की अपेक्षा एक महाकाय हाथी को मार लेना अल्प हिंसा है और इस प्रकार वे अपने को अधिक अहिंसक सिद्ध करते थे। जैन परम्परा ने इसे अनुपयुक्त बताया और कहा कि हिंसा-अहिंसा के विवेक में कितने प्राणियों की हिंसा हुई, यह और भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। भगवतीसूत्र में इसी प्रश्न को लेकर यह कहा गया कि स्थावर जीवों की अपेक्षा त्रस जीव की और त्रस जीवों में पंचेन्द्रिय की, पंचेन्द्रियों में मनुष्य की और मनुष्य में ऋषि की हिंसा अधिक निकृष्ट है। मात्र यही नहीं, जहां त्रस जीव की हिंसा करने वाला अनेक जीवों की हिंसा का भागी होता है, वहाँ ऋषि की हिंसा करने वाला अनंत जीवों की हिंसा का भागी होता है। अतः, हिंसा-अहिंसा के विवेक में संख्या का प्रश्न इतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना कि प्राणी की ऐंद्रिक एवं आध्यात्मिक क्षमता के विकास की बात। यह मान्यता कि सभी आत्माएं समान हैं, अतः, सभी हिंसाएं समान हैं, समुचित नहीं है। कुछ परम्पराओं ने सभी प्राणियों की हिंसा को समान स्तर का मानकर अहिंसा के विधायक पक्ष का जो निषेध कर दिया, वह तर्कसंगत नहीं है। उसके पीछे भ्रांति यह है कि हिंसा का सम्बन्ध आत्मा से जोड़ दिया गया है। हिंसा आत्मा की नहीं, प्राणों की होती है, अतः जिन प्राणियों की प्राणसंख्या अर्थात् जैविक शक्ति अधिक विकसित है, उनकी हिंसा अधिक निकृष्ट है। पुनः, हिंसा में स्तर-भेद स्वीकार करके ही अहिंसा को विधायक रूप दिया जा सकता है। हिंसा और अहिंसा के संबंध में यह प्रश्न इसलिए भी अधिक महत्वपूर्ण बन गया है कि इसका सीधा संबंध मांसाहार और शाकाहार के प्रश्न से जुड़ा हुआ था। यदि हम शाकाहार का समर्थन करना चाहते हैं, तो हमें यह मानना होगा कि हिंसा-अहिंसा के संबंध में संख्या का प्रश्न महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है-उसका ऐंद्रिक और आध्यात्मिक विकास। मात्र यही नहीं, सूत्रकृतांग में अल्प आरम्भ (अल्प हिंसा) युक्त गृहस्थ धर्म को भी एकांत-सम्यक् कहकर हिंसा-अहिंसा के प्रश्न को एक दूसरी ही दिशा प्रदान की गई। अहिंसा का संबंध बाहर की अपेक्षा अंदर से जोड़ा जाने लगा। हिंसा-अहिंसा के विवेक में बाह्य घटना की अपेक्षा साधक की मनोदशा को अधिक महत्वपूर्ण माना जाने लगा। यद्यपि सूत्रकृतांग के आद्रक
SR No.006187
Book TitleBhagwan Mahavir Ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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