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________________ भी सूत्रकार ने एक स्थान पर जिस मनोवैज्ञानिक सत्य को उजागर किया है, वह सत्य यह है कि हिंसा से हिंसा का और घृणा से घृणा का निराकरण सम्भव नहीं है। वह तो स्पष्ट रूप से कहता है-शस्त्रों के आधार पर अभय और हिंसा के आधार पर शांति की स्थापना संभव नहीं है, क्योंकि एक शस्त्र का प्रतिकार दूसरे शस्त्र के द्वारा सम्भव है, शांति की स्थापना तो निर्वैरता या प्रेम के द्वारा ही सम्भव है। अशस्त्र से बढ़कर अन्य कुछ भी नहीं है (आचारांग-1/3/4)। आचारांग और सूत्रकृतांग में श्रमण साधक के लिए जिस जीवनचर्या का विधान है, उसे देखकर हम सहज ही यह कह सकते हैं कि वहां जीवन में पूर्ण अहिंसा के आदर्श को साकार बनाने का एक प्रयत्न अवश्य हुआ है, किन्तु उनमें अहिंसक मुनि जीवन का जो आदर्श चित्र उपस्थित किया गया है, वह अहिंसा के निषेधात्मक पहलू को ही प्रकट करता है। अहिंसा के विधायक पहलू की वहां कोई चर्चा नहीं है। यद्यपि आचारांग में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि इस शुद्ध, नित्य और शाश्वत अहिंसाधर्म का प्रवर्तन लोक की पीड़ा को जानकर ही किया गया है, फिर भी, तीर्थंकरों की यह असीम करुणा विधायक बनकर बह रही हो- ऐसा प्रतीत नहीं होता है। आचारांग और सूत्रकृतांग में पूर्ण अहिंसा का यह आदर्श निषेधात्मक ही रहा है। यद्यपि यहां यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि ऐसा क्यों हुआ? इसका उत्तर यही है कि अहिंसा को विधायक रूप देने का कोई भी प्रयास हिंसा के बिना सम्भव नहीं होगा। जब भी हम जीवन रक्षण (दया), दान, सेवा और सहयोग की कोई क्रिया करेंगे तो निश्चित ही वह बिना हिंसा के संभव नहीं होगी। नवकोटिपूर्ण अहिंसा का आदर्श कभी भी जीवन रक्षण,दान, सेवा और सहयोग के मूल्यों का सहगामी नहीं हो सकता। यही कारण था कि आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध के दूसरे अध्याय के पांचवें उद्देशक में मुनि के लिए चिकित्सा करने और करवाने का भी निषेध कर दिया गया। सत्य तो यह है कि जीवन रक्षण और पूर्ण अहिंसा के आदर्श का परिपालन एक साथ सम्भव नहीं है। पुनः, सामुदायिक और पारिवारिक जीवन में तो उसका परिपालन अशक्य ही है। हम देखते हैं कि अहिंसक जीवन जीने के लिए जिस आदर्श की कल्पना आचारांग में की गई थी, उससे जैन परम्परा को भी नीचे उतरना पड़ा है। आचारांग के दूसरे श्रुतस्कंध में ही अहिंसक मुनि जीवन में कुछ अपवाद स्वीकार कर लिए हैं, जैसे-नौकायन, गिरने की सम्भावना होने पर
SR No.006187
Book TitleBhagwan Mahavir Ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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