SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५२ श्रीमिलमहाकाव्यम् होने लगा। अब देपाला मुनि ने सब लोगों से पूछा-इस कार्यक्रम से तुम कुछ समझे या नहीं । श्रावक बोले-हम तो कुछ भी नहीं समझे । तब देपाला मुनि ने इस सारे कार्यक्रम के रहस्य का उद्घाटन करते हुए कहा-तुम सब लोग गोबर के कीले के साथी हो, जिधर खिचाव होता है, उधर ही मुड़ जाते हो । देखो और सुनो-सूत्र का अस्वाध्याय क्या कभी चार महीनों का होता है अर्थात् नहीं होता, पर तुम लोगों ने मेरे कहने से मान लिया । समाई को समाओ, पूंजणो, घड़ो, मालो, पक्खो आदि की तथ्यहीन बातें भी तुम लोगों ने मान ली। प्रतिक्रमण की विधि में तुम लोगों ने कहा कि आपके मुंह में झाग आये व हमारे मुंह में नहीं आये. यह अन्तर रहा । भोले भाइयो ! मुझे तो मृगी का रोग था, तुम्हें तो नहीं । इस तरह की अनर्गल व मनघड़न्त बातें भी तुम, बिना किसी ननुनच के मान लेते हो, इसीलिए मैं कहता हूं तुम गोबर के कीले के समान हो । अब सुन लो, मैं कोई साधु नहीं हूं, सिर्फ दुष्काल काटने के लिए ही मैंने सांग रचा है । मैं तो अमुक गांव का देपाला भोजक हूं और ये दोनों सन्त मेरे दो पुत्र हैं। अब मेरे पास और कुछ है नहीं, सिर्फ तुम लोगों का दिया हुआ कपड़ा है, अगर चाहो तो वापिस लें लो। ऐसे गोबर के कीले के साथी मनुष्यों द्वारा ही आचारहीन वेषधारी साधु पूज्य हो सकते हैं न कि ज्ञानी पुरुषों द्वारा। (ख) सं. १८५२ के लगभग आचार्य जयमलजी संप्रदाय से गुमानजी, दुर्गादासजी, पेमजी, रतनजी आदि सोलह साधु अलग हो गए । स्थानक, नित्यपिंड, कलाल के घर से पानी लेने आदि कुछ बातों का परित्याग कर उन्होंने नया साधुपन स्वीकार किया, पर पुण्य के विषय में श्रद्धा तो वही थी। तब लोग कहने लगे -जैसे भीखणजी संघ से अलग हुए, वैसे ही ये भी अलग हुए। तब स्वामीजी बोले-सिरोही राव के सामन्तों व कामदारों ने विचार किया कि उदयपुर, जयपुर और जोधपुर नरेशों के पास पालकी है । अपने भी पालकी बनाएं। ऐसा सोच, बांस के डांडों को बांध, उस पर छांया करने के लिए ऊपर लाल वस्त्र डाल 'पालका' बनाया। पालकी का बांस तो मुड़ा हुआ होने के कारण टेढ़ा होता है, उस बात को समझ नहीं पाए । उन्होंने जो 'पालका' बनाया, उसमें सीधे बांस डाल दिए। इसलिए वह भद्दा पालका बन गया। वैसे पालके में राव को बिठा हवा खाने को निकले । उसके साथ आगे और पीछे अनेक लोग गांव बाहर तक आए । उस समय खेत के पास वृक्ष की छांया के नीचे उन्होंने विश्राम किया। तब किसान बोले-यहां मत जलाओ ! मत जलाओ । बच्चे और बच्चियां डरेंगे। . तब रावजी के साथ वाले कर्मचारी बोले-मत बोलो रे, मत बोलो। ये रावजी हैं रे रावजी। तब किसान बोले-बात डूब गई। रावजी मर गए।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy