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________________ पञ्चदशः सर्गः १५१ कोई चारा नहीं क्योंकि अस्वाध्याय होने के कारण अब व्याख्यान आदि तो हो नहीं सकते । आषाढ़ी पूर्णिमा को चातुर्मासिक पाक्षिक का दिन था। सायंकाल प्रतिक्रमण सुनने के लिए काफी लोग एकत्रित हुए। किसी ने पूछा - भाई । घड़ी कहां है ? समाई करनी है । देपाला मुनि ने कहा-अरे लोगों ! तुम इतना ही नहीं जानते हो समाई कहते हो । समाई तो स्त्रीलिंग है, समाई कहने से दोष लगता है । एवं संघट्टा होता है । अत: समायों कहना चाहिए। ऐसे ही घड़ी नहीं घड़ो, पूंजणी नहीं पूंजणो, माला नहीं मालो ऐसे बोलना चाहिए । श्रावक लोग ध्यान करने को बैठे, ध्यान में मुंह नीचा मत रखो, मुंह नीचा रखते हो क्या तुम्हें नरक में जाना है। आदि । इस तरह की अजब गजब बातें सुन श्रावक लोग दंग रह गये । और कहा-महाराज ! वाह ! वाह ! आपने तो गजब का ज्ञान दिया हम लोगों को। इतने में प्रतिक्रमण का समय आ गया, पाक्षिक प्रतिक्रमण सुनने के लिए काफी लोग एकत्रित हुए । मुनिजी ने कहा-भाइयो ! जैसे मैं करता हूं ठीक वैसे ही तुम लोग भी करते जाना एवं किसी प्रकार से विधि में फर्क नहीं पड़ने देना। देपाला मुनि के मृगी का रोग था, उन्हें मृगी आ गई एवं वे गिर पड़े। बस फिर क्या था उनके देखा देख तत्त्वातत्त्व विवेक रहित एवं अनुकरणीय प्रेमी सारे के सारे श्रावक भी वैसे ही गिर पड़े एवं प्रतिक्रमण को पूरा कर मुनिजी ने पूछा-भाइयों । विधि में कोई फर्क तो नहीं पड़ा । लोगों ने कहामहाराज ! और तो कोई फर्क नहीं पड़ा सिर्फ इतना फर्क जरूर पड़ा । जब आप गिरे तब आपके देखा देख विधि पूरी करने लिए हम भी गिर पड़े, पर आपके मुंह में झाग आए और हमारे मुंह में झाग नहीं आए । देपाला मुनि ने सोचा-ये लोग निरे मूर्ख एवं ज्ञानशून्य हैं। ऐसे लोगों में हमारा काम आसानी से चल सकता है। लोग मुनीवरों के यशोगीत गाते हुए बोले-महाराज बड़े ज्ञानी आए थे पर हमलोगों के अन्तराय का योग था, अतः पहले दिन ही सूत्र की अस्वाध्याय हो गई, अन्यथा न मालूम मुनिश्री कितना ज्ञान देते और हम कितना ज्ञान सीख पाते । पर खैर, हआ सो हआ । यों कार्तिक पूर्णिमा भी आई, विहार का समय भी निकट आने लगा। देपाला मुनि बोले-कल विहार होने वाला है । कल से कपड़ा जांचने का कल्प भी आ गया है । लोगों ने कपड़े की भावना भाई । और उन्होंने पर्याप्त मात्रा में कपड़ा जांचा । मार्गशीर्ष कृष्णा एकम को मध्याह्र में विहार होने वाला था। देपाला मुनि बोले-भाइयो ! आज दोपहर में सब लोग एक-एक कुंडा गोबर का लेते आएं व एक बांस और चार रस्सियां भी मंगाई। गोबर का ढेर लग गया, बीच में बांस रोपा गया, व चार रस्सियां बांध, चार दिशाओं में एक एक आदमी को पकड़ा दी गई । फिर एक आदमी झुक गया । ऐसे ही दूसरे-तीसरे-व चौथे ने किया एवं बांस का झुकाव भी पूर्ववत् उसी तरफ
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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