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________________ 186/ जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन सद्भूयामहमत्र कुत्र भवतो निक्षिप्य सम्यङमनाः नानिष्टं जनताऽऽयतिं प्रसरताद् भातूत्सवश्चात्मनाम् ॥10 जयकुमार की सद्भावना रूप में यह व्यक्त किया गया है कि जन्म सम्बन्धी आतंकता, बृद्धावस्था इत्यादि कष्ट दूर हों और शुभमयी चिन्ता को लोग धारण करें । यह राज्य भर यत्न से उचित समान रूप में स्थिरता के साथ वहन कर मुझमें सद्भाव उत्पन्न हो । जनता के भावी जीवन में अनिष्ट प्रसार न हो और हम लोगों के उत्सव विराजमान हों । इस प्रकार लोट् लकार के द्वारा आशीर्वचन की पुष्टि की गयी है । 27. काव्याथोचित्य : काव्यार्थौचित्य के विषय में आचार्य क्षेमेन्द्र का विचार है कि जिस प्रकार गुणों के वैशिष्ट्य से अलंकृत ऐश्वर्य के द्वारा सज्जन पुरुष सुशोभित होते हैं, उसी प्रकार अनुभव रूप अर्थ विशेष के कारण सम्पूर्ण प्रबन्धार्थ काव्यार्थ अत्यन्त शोभित • होता है105 । इस महाकाव्य में पदार्थ विवेचन की दृष्टि प्रायः प्रत्येक सर्ग में अपना पर्याप्त स्थान रखती है । इसलिये अत्यन्त संक्षेप में दिखाया जा रहा है। यथा "घटकन्तु विधातारं सतोरनुजानामि विचारकारिणम् । जडमित्यनुजानतो वचः शुचि तावद् धरणौ विरागिणः ॥106 सुलोचना और जयकुमार के मनोरम सौन्दर्य को देखकर एक सखी दूसरी सखी से कह रही है कि हे सखि ! सुलोचना और जय के निर्माता (विधाता) विचारकों में श्रेष्ठ है, ऐसा मैं समझती हूँ। परन्तु विधाता जड है, ऐसा विरागी अर्हतों का जो जीवन दर्शन है वह तो पवित्र ही है "प्राणिनांशुभाशुभविधिविधायकं अदृष्टं तत्पौद्गत्यिकं निर्जीवं एव वस्तु भवति इति जैन सिद्धान्तः " जयकुमार और सुलोचना इन दोनों योग्य स्वभाव कान्तिशाली प्राणियों का संयोजक अदृष्ट चैतन्य ही प्रतीत होता है । यह हमारा चित्त कह रहा है । इसलिये इन दोनों का निर्माता चेतन ही है जड नहीं है । जैन सिद्धान्त की व्याख्या रखते हुए काव्यार्थ का ठीक बोध कराया गया है। सम्पूर्ण जयोदय महाकाव्य आकार से विशाल है । स्वभावतः उसमें अनुपम किसी भी साहित्यतत्त्व का प्रदर्शन संभव नहीं है। इसलिये मैंने यत्रकुत्रापि से जो भी उचित प्रतीत हुआ, उसी को यहाँ प्रदर्शित किया है। औचित्य काव्य का प्राण है । कवि भूरामल जी ने उसका सम्यक् निर्वाह किया है । यह तो काव्य देखकर ही सुधी विज्ञ वर्ग जान सकता है। जयोदय महाकाव्य में कतिपय दोष ब्रह्मचारी भूरामल शास्त्री द्वारा प्रणीत जयोदय एक विशाल महाकाव्य है, जिसकी रचना
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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